पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/५५

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जगद्विनोद। पायनकी पूरी परिचारिका मवेरहो । याही में मगन मन मोहन हमारो मन, लगनि लगाय लग मगन बनेरहौ ॥ ७० ॥ दोहा-धरति न नाह गुनाह उर, लोचन करति न लाल । तिय पियकीछतियाँलगी,बतियांकरति विशाल॥७१॥ पियगुनाह चित चाह लखि, करैमानसनमान । ताहि तीयको मध्यमा,भापतसुकविसुजान॥७२॥ अथ मध्यमाका उदाहरण ।। कवित्त-मन्द मन्द उरपै अनन्दहीके आँसुनकी, करसै सुबूंदै मुकतानही के दानेसी । कहै पदमाकर प्रपंची पंचबाणनन, काननकी मानपै परी त्यों घोर घानेसी ॥ ताजी त्रिवलीनमें विराजी छबि छाजीसबै, राजी रोम राजी कार अमित उठानेसी । सोहैं पेख पीको बिहँसोहैं भये दोऊ दृग, सोहै सुनि भौहैं गई उतार कमानेसी ॥ ७३ ।। पुनर्यथा ॥ कवित्त-जाके मुख सामुहे भयोई जो चाहत मुख, लीन्हों सो नवाई डीठि पगन अवागीरी। बैन सुनिबेको अति व्याकुल हुते जे कान, देऊ मुंदिराखे मजा मनहूं न माँगीरी ॥ झारि डारी पुलकि प्रसेदहूनिवारिडारी,