पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/६५

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जगद्विनोद । निशि दिन सांचहु साँवरो, दुगुन देखिने योग ॥ ३२॥ इति श्रीकूर्मवंशावतंस श्रीमन्महाराजाधिराजराजराजेन्द्र श्री सवाई महाराज जगसिंहाज्ञया मथुरा स्थाने मोहनलाल भट्टात्मज कवि पनाकर विरचित जगद्विनोद नाम काव्ये शृङ्गार रसालंबन विभाव प्रकरणम् ॥१॥ अथ उद्दीपन विभागलक्षण । दोहा-जिनहिं विलोकतही तुरत, रस उद्दीपन होत । उद्दीपन सुविभाव है, कहत कविनको गोत ॥१॥ सखा सखी दूती सुवन, उपवन षट्ऋतु पौन । उद्दीपनहि विभावमें, वर्णत कविमति भौन ॥२॥ चन्द्र चांदनी चन्दनहु, पुहुप पराग समेत । योही और शृङ्गार सब, उद्दीपनके हेत ॥ ३ ॥ कहे जु नायकके सबै, प्रथमहि विविध प्रकार । अब वर्णव हौं तिनहिके,सचिव सखाजे चार ॥४॥ पीठमर्द बिट चेट पुनि, बहूरि बिदूषकहोइ । मोचै मानतियान को, पीठमर्द है सोइ ॥ ५॥ पीठमर्दका उदाहरण ॥ कवित्त-जूमि देखौ धरकि धमारनकी धूम देखो, भूमि देखौ भूमित छवावै छबी छबीकै । कहै पदमाकर उमंग रङ्ग सींचि देखो, केसरिकी कीच जो रह्यो मैं ग्वाल गबिकै ॥ उड़त गुलाल देखौ ताननके ताल देखो,