पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(६८) जगदिमोद । होवयों पितभूषणमात ज्योडाकतज्योति जवाहिर पादै। दोहा-कहा करौं जो आँगुरिन, अनी घनी चुभिजाय ॥ अनियारे चख लखि सखी,कजरादेत डराय ॥२०॥ अथ शिक्षा--सवैया ॥ झाँकतिहेकाझरोखालगीलगलागिबेको इहां झेल नहींफिर । त्यों पदमाकर तीखेकटाक्षन कीसरकौसरसेल नहीं फिर ॥ नयननहींकीघलाघलकै घनघावनको कछु तेल नहीं फिर । प्रीतिपयोनिधिमेधुसिकै हँसिके कढ़िबोहँसिखेल नहीं फिर । दोहा--बहत लाज बूड़त सुमन, भ्रमत नैन तेहि ठांव । नेह नदीकी धारमें, तू न दीजिये पांव ॥ २२ ॥ अथ उपालम्भन । कवित्त--बज बहिजाय न कहूं यो आई आँखिनते, उमँगि अनोखी घटा वरपति नेहकी । कहै पदमाकर चलावै खान पानकीको, पाणन परी हैं आनि दहसति देहकी । चाहिये न ऐसो वृषभानुकी किशोरी तोहि, आई दै दगा जो ठीक ठाकुर सनेहकी । गोकुलकी कुलकी न गैलकी गोपालै सुधि, गोरस की रसकी न गौवन न गेहकी ॥ २३ ॥ दोहा-कौन भांति आयेनिरखि, तुमतहँ नन्दकिशोर । भरभराति भामिनि परी, घनघराति घनघोर ॥