पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/७६

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(७६) जगद्विनोद । कहै पदमाकर त्यों बाँसुरीको ध्वनि मिलि, रह्यो बांधि सरस सनाको एक तालको । देखते बनत पै न कहत बनै री कछु, विविध बिलास यों हुलास इक ख्याल को । चन्द्र छबि राश चांदनीको परकाश, राधिकाको मन्दहासरासमण्डलगोपालको ५५॥ अथ हेमन्त ऋतु वर्णन ॥ कवित्त-अगरकी धूप मृगमदकी सुगन्धवर, बसन बिशाल जाल अंग टाकियतु है । कहै पदमाकर सु पौन को न गोन जहां, ऐसे भौन उमॅगि उमगि छाकियतु है ॥ भोग औ सँयोग हित सुरित हिमन्तही में, एते और सुखद सुहाय बाकियतु है । तानकी तरंग तरुणापन तरणि तेज, वेल तूल तरुणि तमाल ताकियतु है ॥ ५६ ॥ गुलगुली गिलमें गलीचा हैं गुणीजन हैं, चांदनी हैं चिक हैं चिरागनकी माला हैं। कहैं पदमाकर त्यों गजक गिजा हैं सजी, सेज हैं सुराही हैं सुराहैं और प्याला हैं । शिशिरके पालाको न व्यापत कसाला तिन्हैं, जिनके अधीन एते उदित ममाला हैं। 9