पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जगदिनोद। तरज गईती फेर तरजन लागी री। बुमड घमण्ड घटा बनकी घनेरी अबै, गरज गईती फेर गरजन लागीरी ॥५२॥ बरषत मेह नेह सरसत अङ्ग अङ्ग, झरसत देह जैसे जरत जवासो है। कहै पदमाकर कालिन्दीके कदम्बन पै, मधुपन कीन्हों आइ महत मवासो है, ऊधी यह ऊबम जताइ दीजो मोहन को, बज सो सुवासो भयो अगिनि अवासो है। पातिकी पपीहा जलपान को न प्यासो कहा, व्यथित वियोगिनके प्राणनको प्यासो है ॥५३॥ अथ शरदऋतु वर्णन ॥ कविन-तालनपै तालपे तमालनपै मालन पै, वृन्दावन बीथिन बहार बंशीवट कहै पदमाकर अखण्ड रासमण्डल पै, मण्डित उमडि महा कालिन्दीके तट पै ॥ क्षितिपर छानपर छाजत छतानपर, ललित लतानपर लाडिली के लट पै। आई भले छाई यह शरद जु न्हाई जिहि, पाई छबि आजुहि कन्हाईके मुकुट पै ५४॥ खनक चुरीनकी त्यों ठनक मृदंगनकी, रुनुक झुनुकसुर नूपुरके जालको ॥