पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/७८

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- जगदिनोद । स्तम्भस्वेद रोमांचकहि, बहुरि कहत स्वरभंग ॥ कम्प वरण वैवर्ण्य पुनि, आंम् प्रलय प्रसंग ॥ ५॥ अन्तर्गत अनुमान में, आठहु सात्विक भाय ॥ ज़म्भा नवम बखानही, जे कवीनके राय ॥ ६॥ हर्ष लाज भय आदिते, जबै अंग थकि जात ॥ स्तम्भ कहत तासों सचे, रसग्रंथनिसरसात ॥ ७ ॥ अथ स्तम्भ-सवैया ॥ या अनुरागकी फागलखो जहँरागतीराग किशोरकिशोरी ॥ त्यों पदमाकरबालीघलो फिरलालहीलालगुलालकी झोरी ॥ जैसीकितैसी रही पिचकीकर काहून केसरिरंगमें बोरी ॥ गोरिनके रंग भी जिगो माँवरो साँवरेकेरंगभीजिसुगोरी॥८॥ दोहा-पियहिपरखितिय थकिरही, बुझेउ सखिननिहार ॥ चलतिक्योंनक्योंचलहुमग, परतनपयरंगभार ॥ ९ ॥ रोष लाज उर हर्ष श्रम, इनहींते जो होत ॥ अंगअंग जाहिरसलिल, स्वेदकहत कवि गोत ॥१०॥ स्वेदका उदाहरण ॥ कवित्त-येरी बलबीरके अहीरनकी भीरममें, सिमिटि समीरन अंबीरनको अटाभयो । कहै पदमाकर मनोज मनमौज नहीं, मनकेहटा में पुनिप्रेमको पटाभयो । नेही दलालको गुलालकी पलावल में. राजै त्यों तन वपसी जबन घटाभयो ।