जगद्विनोद ।। (७९) चौरेचखचोटिन चलाक चित्तंचोरी भयो, लूटिंगई लाज कुलकानिको कटाभयो ॥ ११ ॥ दोहा--यों श्रम सीकर सुमुखते, परत कुचनपर वेश । उदित चन्द्र मुकुता छतनि, पूजत मनहुँ महेश । शीतभीत हरयादिते, उठे रोग समुहाय ॥ १२॥ ताहि कहत रोमांचहैं,सुकविनके समुदाय ॥१३॥ अथ रोमांच--सवैया । कधी डरी तूखरीजलजन्तुते कैअङ्गभारसिवार भयो है । कैनखते शिवलौं पदमाकर जाहिरै झार श्रृंगार भयो है ॥ कधौं कछूतोहिं शीतविकारहै ताहीकोया उदगार भयो है । कैधौंसुवारिबिहारहिमेंतनतेरोकदम्बको हार भयो है ॥१४॥ दोहा--पुलकित गात अन्हात यों, अरी खरी छबिदेत । उठे अंकुरे प्रेमके, मनहुं हेमके खेत ॥ १५ ॥ हर्ष भीतमद क्रोधते, वचन भाँतिहो और । होत जहां सरभङ्गको, वर्णतकवि शिरमौर ॥१६॥ अथ स्वरभंग-सवैया । जातहतीनिज गोकुलमेंहार आवै तहां लखिकै मग सूना । तासो कहौं पदमाकर यो अरे सांवरो बावरे तैहमें छूना । आजधौं कैसी भई . सजनी उतबाविधिबोलकव्योईकहूना । आनिलगायोहियोसोहियोभरिआयोगरौकहि भायो कछूना ॥ दोहा--हौं जानत जो नहिं तुम्हें, बोलत अअँखरान । संग लगे कहुँ औरके, करिआये मदवान ॥ १८॥ -
पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/७९
दिखावट