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(८) जगद्विनोद । तुव तजि पायन चली है चंचलाई कित, बावरी विलोकै क्यों न आंखिनमें आई है । मेरी कटि मेरीभटू कौनधौं चुराई तेरे, कुचन चुराई कै नितम्बन चुराई है ॥२८॥ पुनर्यथा--सवैया ॥ स्वेदके भेद न कोऊ कहै बत आंखिनहूंअसुवानकोधारो त्यों पदमाकर देखती हौं तिनको तनकोउ न जात सँभारो हयों कहाको कहागयोयों दिनद्वैकहीते कछुख्याली हमारो। काननमेंबसोवांसुरीकोध्वनि प्राणनमेंबस्योबांसुरी वारो ॥ दोहा-कहाकहौं दुख कानमों, मोनगहौं केहि भांति ॥ घरी घरी यह घांवरी, परत ढीलिये जाति ॥३०॥ उरउकसोहैं उरज लखि, धरति क्यों न धरि धीर । इनहिविलोकिविलोकियतु, सौतिनके उरपोर॥३१॥ तनुमें यौवन आगमन, जाहिर जब ज्येहि होत । ज्ञात यौवना नायका, ताहि कहै कविगोत ॥ ३० ॥ ज्ञात यौवनाका उदाहरण-सवैया । चौकमें चौकी जरायजरी तिहिपै खरीबार बगारतसौंधे। छोरिपरी है सुकंचुकीन्हानको अंगनतेजमें ज्योतिके कौंथे । छाइउरोजनकोछवि ज्यों पदमाकर देखतही चकचौधे ।। भाजिगईलरिकाईमनौलरिकैकरिकैदुहुँदुन्दुभिऔंधे ॥३३॥ - पुनर्यथा--सवैया ॥ ये वृषभानुकिशोरीभई इतर वह नंद किशोर कहावै ।