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पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/८४

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बगार । (८४) जगद्विनोद । पुनर्यथा--सवैया ॥ आईही खेलन फाग इहां वृषभानुपुराते सखी सँग लीने । त्यों पदमाकर गावती गीत रिझावती भाव बताय नवीने ॥ कञ्चनकी पिचकी करमें लिये केसरके रँगसों अंगभीने । छोटीमी छाती छुटी अलकै अतिबैसकी छोटीबड़ी परवीने।। दोहा-समुझि श्यामको सामुह, करते बार मनमोहन मनहरणको, लगी करन शृङ्गार ॥४५॥ तनक तनकही में जहां, तरुणि महाछबिदेत ॥ मोई बिक्षितहावको, वर्णत बुद्धि निकेत ॥४६॥ अथ विक्षिप्त वर्णन--सवैया ॥ मानो मयंकहिके पर्यक निशंक लमैं सुत बंकमही को। त्यों पदमाकर जागि रह्योजनु भामहिये अनुरागजुपीको ॥ भूषण भार शृंगारन सों सजिसातनको जुकरैमुखफीको । • ज्योतिको जाल बिशाल महातियभालपैलालगुलालकोटीको दोहा-जनुमलिन्द, अरविन्दबिच, बस्यो चाहि मकरन्द ।। इमि इकमृगमदबिन्दुमों, कियेसुबश बजचन्द॥४८॥ होत काज कछुको कछू, हरबराय जिहि और ॥ विनमतासों कहत हैं, हाव सबै शिरमौर ॥ ४९ ॥ विनम--सवैया.॥ बछरै खरी प्यावै गऊ तिहिको पदमाकरको मनलावत है। तियजानि गिरै या गहो बनमालसुसेचेललाइन्योछावत है । उलटी कर दोहनी मोहनीकी अंगुरीयन, जानि दबावत है।