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पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/८३

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जगद्विनोद । (८३) नारीते न होत नर नरते न होत नारी, बिधिक करेहूँ कहूँ काहू ना निहारी है । कामकर्चाकी करतूत या निहारी जहां, नारी नर होत नर होत लख्यो नारी है ॥३९॥ : पुनर्यथा-सवैया ।। ये इत यूँघटघालिचलें उत बाजत बांसुरीकी ध्वनि खोलैं । त्यों पदमाकर ये इतै गोरस लै निकसैं यों चुकावत मोलें ॥ प्रेमके फन्दे सुप्रीतिकी पैठमें पैठतही है दशा यह जोलैं । राधामयी भई श्यामकी सूरत श्याममयी भई राधिकाडोलैं ।। दोहा-तिय बैठी पियको पहिरि, भूषण वसन विशाल ॥ समुझिपरत नहिं सखिनको, को तियको नँदलाल ४१ जो तिय पियहि रिझावई, प्रगट करै बहु भाव ॥ सुकवि विचार बसानहीं, सोबिलासनिधिहाव॥४२॥ अथ विलास हाव वर्णन ॥ कपिच-शोभित सुमनबारी सुमना सुमन बारी, कौनहूं मुमनवारी को नहिं निहारी है । कहै पदमाकर त्यों बांधनू बसनवारी, वा बज बसन वारो हो हरनहारी है। सुवरनवारी रूप सुबरनवारी सज, सुबरनवारी कामकी सम्हारी है। सीकरनवारी स्वेद सीकरन वारी रवि, सीकरनवारी सो वशीकरन बारी है ॥४३॥