जगद्विनोद । (८९) अथ संचारी भाव। दोहा-थाई भावनको जिते, अभिमुख रहै मिताव ॥ जे नवरसमें संचरै, ते संचारी भाव ॥१॥ थाई भावनमें रहत, याविधि प्रगट बिलात । ज्यों तरंग दरियाव में, उठिउठि तितहि समात ॥२॥ थिरकै थाई भाव तब, भिरि पूरण रस होत । थिर न रहत रस रूपलों, संचारिनको गोत ॥३॥ थाई मंचारीन को. है इतनोई भेद । असंचारिनके कहत हैं, ततोस नाम निवेद ॥४॥ कविन--कहि निरवेद ग्लानि शंका त्यों असूया श्रम, मद ति आलस विपाद मात मानिये । चिन्ता मोह सुपन विबोध स्मृति अमरप, गर्व उतसुक तासु अवहित्थ ठानिये ॥ दीनता हरष बीडा उग्रता सु निद्रा व्याधि, मरण अपसमार आवैगहु आनिये ॥ त्रास उन्माद पुनि जडता चपलनाई. नतिमा वितक नाम याही विधि जानिये दोहा-याविधि संचारी सबै, वर्णतहैं कविलोग । जे ज्यहि रसमें संचरै, तेतहँ कहिबे योग॥६॥ डर उपजै कछु खेद लहि, विपति ईरषा ज्ञान । ताहीते निज निदरिबो,सो निर्वेद बखान॥७॥ अति उसाँस अरु दीनता विवरण अश्रनिपात। निर्वेदहुने होतहै, वे सुभाव निजगात ॥ ८ ॥
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