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पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/९३

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जगदिनोद। वैसही वेणु बजावत श्याम सु नाम हमारो हू टेर फिरेंगे। एकदिनान हिंएकदिनाकबहूंफिरवेदिनफेर फिरेंमे ॥ २७ ॥ पुनर्यथा सवैया ॥ याजगजीवनकोहै यहैफल जो छलछाँड़ि भजै रघुराई । शोधिक मंत महंतनई पदमाकर बात यहै ठहराई । द्वैरहेहोनी प्रयास बिना अनहोनी न है सकै कोटि उपाई । जो विधिभालमें लीकलिखीसोबढ़ाई बढ़े न वटै न घटाई ॥ दोहा-बनचर बनचर गगनचर, अजगर नगर निकाय । पदमाकर तिन मबनकी, खबर लेत रघुराय ॥२९॥ जागरणादिकते जहां, जो उपजत अलसानि । ताहीमों आलस कहत, कविकोविद जे आनि ॥ 1 अथ आलसका उदाहरण । कवित्त-गोकुलमें गोपिन गोविंदसंग खेलीफाग, रातिभरी आलसमें ऐसी छबि छलकें। देहभरी आलस कपोल रस रोरीभरे, नींदभरे नयन कछूक झपैं झलक ॥ लाली भरे अधर बहालीभरे मुखबर, कवि पदमाकर विलोकै कौन सलक ॥ भागभरे 'लाल औ सुहागभरे सब अङ्ग, पीकभरी पलक अबीरभरी अलके ॥३१॥ दोहा-निशिजागी लागीहिये, प्रीतिउमंगतपात ॥ उठिनसकतआलसबलित, सहजसलोनेगात ॥३२॥ 7