शीला―अहा बहन दामिनी, अच्छे समय पर आ गई। क्या यज्ञशाला में चलती हो?
दामिनी―किन्तु तुमने तो अभी तक वेष भूषा भी नही की।
शीला―वेश भूषा! क्यों?
दामिनी―क्यो, जब वहाँ बहुत सी कुल ललनाएँ और राज- कुल की स्त्रियाँ अच्छे अच्छे गहने कपड़ो से सजकर आवेंगी, तब क्या तुम इसी वेश में उनमें जा बैठोगी?
शीला―क्यों, क्या इसमे कुछ लज्जा है?
दामिनी―अवश्य! जहाँ जैसा समाज हो, वहाँ उसी रूप मे जाना चाहिए।
शीला―यह विडम्बना है। पवित्र हृदय को इसकी क्या आवश्यकता है? बनावटी बातें क्षणिक होती हैं; किन्तु जो सत्य है, वह स्थायी होता है। बहन दामिनी, मेरी समझ मे तो स्त्रियाँ विशेष श्रृङ्गार का ढोंग करके अपनी स्वाभाविक स्वतन्त्रता भी खो बैठती हैं। वस्त्रों और आभूषणो की रक्षा करने और उन्हे सँभालने में उनको जो कार्य करने पड़ते हैं, वे ही पुरुषो के लिए विभ्रम हो जाते हैं। चलने मे आभूषणो के कारण सँभालकर पैर रखना, कपड़ो को बचाने के लिये उन्हें समेट कर उठाते, हटाते खींचते हुए चलना―यह सब पुरुषों की दृष्टि को तो कलुषित करता ही है, हमारे लिये भी और बन्धन हो जाता है। खुले हृदय से, स्वच्छन्दता से, उठना बैठना और बोलना चलना भी दुष्कर