सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१००
जनमेजय का नाग-यज्ञ

काश्यप―मरो, कटो; मुझे क्या! घात चल गई, तो हँसूँँगा; नहीं तो कोई चिन्ता नहीं।

[ काश्यप का प्रस्थान। सरमा का पुनः प्रवेश। ]
 

सरमा―इस नीच ने आज फिर माया जाल रचा है। अच्छा, आज तो सरमा जान पर खेलकर उस आर्य बाला की मर्यादा की रक्षा करेगी। उस तिरस्कार का जो वपुष्टमा ने सिंहासन पर बैठकर किया है, प्रतिफल देने का अच्छा अवसर मिला है। देखूँँ, क्या होता है।

[ आस्तीक का प्रवेश ]

आस्तोक―आर्ये, मैं आस्तीक प्रणाम करता हूँ।

सरमा―कल्याण हो वत्स! तुम यहाँ कैसे आये?

आस्तीक―मॉ ने मुझे त्याज्य पुत्र बनाकर निकाल दिया है।

सरमा―( उसके सिर पर हाथ फेरती हुई ) आज से मैं तुम्हारी माँ हूँ। वत्स, दुखी न होना। तुम मेरे पास रहो। माणवक और आस्तीक, मेरे दो बेटे थे। एक खो गया, तो दूसरा मिल गया।

आस्तीक―माँ, मुझे आज्ञा दो कि मैं क्या करूँ।

सरमा―आज तुम्हें बहुत बड़ा काम करना होगा। तुम पत्नीशाला की पीछे की खिड़की के पास चलो। जब तक मेरा कण्ठ स्वर न सुनना, तब तक वहाँ से कहीं न जाना।

आस्तीक―जो आज्ञा।

[ दोनों जाते हैं। शीला और दामिनी का प्रवेश ]