पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/११८

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आठवाँ दृश्य
स्थान―यज्ञ-शाला
[वन्दी तक्षक, मणिमाला, जनमेजय, शौनक, उतङ्क, सोमश्रवा, चण्ड भार्गव, आदि]

जनमेजय―इतनी नम्रता और आज्ञा पालन का यह परि- णाम! इतनी प्रतिहिन्सा! प्रभुत्व का इतना लोभ! धन्य हो भूसुरो! तुमने अच्छा प्रतिशोध लिया।

ब्राह्मण―राजन्, लाभ और हठ से जो धर्म आचरित होता है, उसका ऐसा ही परिणाम हुआ करता है। इसमे इन्द्र ने बाधा डाली है।

जनमेजय―चुप रहो। तुम्हे लज्जा नहीं आती! ब्राह्मण होकर ऐसा गर्हित कार्य! शत्रु से मिलकर महिषी को छिपा देना! ये सब मुझे लज्जित करने के उपाय हैं। मैं अवश्य इसका प्रति- शोध लूँँगा। क्रोध से मेरा हृदय जल रहा है। इसी अनल कुण्ड मे तुम सब की आहुति होगी!

सोमश्रवा―राजन्, सुबुद्धि से सहायता लो। प्रमत्त न बनो। हो सकता है कि पदच्युत काश्यप का इसमे कुछ हाथ हो, किन्तु समस्त ब्राह्मणो को क्यो इसमे मिलाते हो?

जनमेजम―तुम लोगों को इसका प्रतिफल भोगना होगा। यह क्षात्र रक्त उबल रहा है। उपयुक्त दण्ड तो यही है कि तुम