पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/१६

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पहला अङ्क—पहला दृश्य

सर्वत्र शुद्ध चेतन है; जड़ता कहाँ? यह तो एक भ्रमात्मक कल्पना है। यदि तुम कहो कि इनका तो नाश होता है, और चेतन को सदैव स्फूर्ति रहती है, तो यह भी भ्रम है। सत्ता कभी लुप्त भले ही हो जाय, किन्तु उसका नाश नहीं होता। गृह का रूप न रहेगा तो ईटें रहेंगी, जिनके मिलने पर गृह बने थे। वह रूप भी परिवर्तित हुआ, तो मिट्टी हुई, राख हुई, परमाणु हुए। उस चेतन के अस्तित्व को सत्ता कहीं नहीं जाती; और न उसका चेतनमय स्वभाव उससे भिन्न होता है। वही एक ‘अद्वैत’ है । यह पूर्ण सत्य है कि जड़ के रूप में चेतन प्रकाशित होता है। अखिल विश्व एक सम्पूर्ण सत्य है। असत्य का भ्रम दूर करना होगा; मानवता की घोषणा करनी होगी; सबको अपनी समता में ले आना होगा।

अर्जुन―तो फिर यह बताओ कि यहाँ क्या करना होगा। तुम तो सखे, न जाने कैसी बातें करते हो, जो समझ ही मे नही आतीं; और समझने पर भी उनको व्यवहार में लाना बहुत ही दुरूह है। झाड़ियो में छिप कर दस्युता करनेवाली और गुंजान जङ्गलों मे पशुओ के समान दौड़ कर छिप जानेवाली इस नाग- जाति को हम किस रीति से अपनी प्रजा बनावें? ये न तो सामने आकर लड़ते हैं और न अधीनता ही स्वीकृत करते है। अब तुम्हीं बताओ, हम क्या करें।

श्रीकृष्ण―पुरुषार्थ करो, जड़ता हटाओ। इस वन्य प्रान्त मे विकास करो जिसमे आनन्द फैले। सृष्टि को सफल बनाओ।