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पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/२१

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जनमेजय का नाग-यज्ञ

मनसा―तो जाओ, उसे मना लाओ!

वासुकि―हमें साहस नहीं होता। बहन, तुमने अपने रूखे व्यवहार से जरत्कारु को भी यहाँ न रहने दिया। हम लोग आर्यों से मेल करने की जो चेष्टा कर रहे हैं, उस पर इसका कैसा प्रभाव पड़ेगा?

मनसा―कैसा प्रभाव पड़ेगा, यह तुम जानो। मुझे क्या? जरत्कारु गए, तो क्या हुआ; मेरा नाम भो तो तुम लोगो ने जरत्कारु ही रख दिया है। क्या अब कोई दूसरा नाम बदलोगे?

वासुकि―बहन, व्यंग्य न बोलो। तुम्हारी इच्छा से ही ब्याह हुआ था; किसी ने कुछ दबाव डालकर नहीं किया था। नागो के उपकार के लिये तुम ने स्वयं हो―

मनसा―बस बस! कायरो की संख्या न बढ़ाओ। नागों के विश्व-विश्रुत कुल मे तुम्हारे सदृश निर्जीव व्यक्ति भी उत्पन्न होंगे, ऐसी सम्भावना न थी! रमणियों के आँचल में मुँँह छिपाकर आर्यों के समान वीर्यशाली जाति पर बाण बरसाना चाहते हो! अब मुझ से यह सहन न होगा! मैं यह पाखंड नहीं देख सकती! खाण्डव की ज्वाला के समान जल उठो! चाहे उसमे आर्य भस्म हो, और चाहे तुम। इस नीच अभिनय को आवश्यकता नहीं।

[ सवेग प्रस्थान ]
 
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