पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/२०

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पहला अङ्क―पहला दृश्य

की प्रतिहिंसा भोगनी पड़ेगी। अब पाण्डवो की वह गरमागरमी नही रही। यह नाग जाति फिर एक बार चेष्टा करेगी; परिणाम चाहे जो हो।

सरमा―अभागिनी नागिन! श्रीकृष्ण के इस महत् उद्देश्य का तू उलटा अथ लगाती है! जो प्राकृतिक नियमों को सामने रखकर सब की शुभ कामना रखता था, उसे अपवाद लगाती है! भला तेरा और तेरी जाति का उद्धार कैसे होगा? अपना सुधार न कर के तू दूसरों के दोष ही देखेगी। जो वास्तव मे तेरी ही परिस्थिति बदल कर तेरो उन्नति करने की चेष्टा करता है, उसे संकीर्णता से अपना शत्रु समझती है! हा, मैं कैसे भ्रम में थी! विषम को सम करना चाहती थी, जो मेरी सामर्थ्य के बाहर था। स्नेह से मै सर्प को अपनाना चाहती थी; किन्तु उसने अपनी कुटिलता न छोड़ी। बस, अब यह जातीय अपमान मैं सहन नही कर सकती। मनसा मैं जाती हूँ। वासुकि से कह देना कि यादवी सरमा अपने पुत्र को साथ ले गई। मै अपने सजातियों के चरण सिर पर धारण करूँगी, किन्तु इन हृदय-हीन उदंड बबरी का सिहासन भी पैरो से ठुकरा दूँँगी।

[ सवेग प्रस्थान ]
 

मनसा―जा न, मेरा क्या बिगड़ता है!

[ वासुकि का प्रवेश ]

वासुकि―बहन, यह तुमने क्या किया! क्या सरमा को इस तरह उत्तेजित करके उसे चले जाने देना अच्छा हुआ?