सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४
जनमेजय का नाग-यज्ञ

दौवारिक―(प्रवेश करके) जय हो देव! एक स्नातक ब्रह्म- चारी राज-दर्शन की इच्छा से आए हैं।

जनमेजय―लिवा लाओ।

[ दौवारिक जाता है; और उत्तङ्क को लेकर आता है। ]

उत्तङ्क―राजाधिराज की जय हो!

जनमेजय―ब्रह्मचारिन् , नमस्कार करता हूँ। कहिए, आप किस कार्य के लिये पधारे है?

उत्तङ्क―राजाधिराज, मैं आर्य वेद का अन्तेवासी हूँ। मेरी शिक्षा समाप्त हो गई है; किन्तु अभी तक गुरुदक्षिणा नहीं दे सका हूँ। इसीलिये आपके पास प्रार्थी होकर आया हूँ।

काश्यप―अरे कुछ कहो भा, किस लिये आए हो? जैसा गुरु है, वैसे ही तुम भी हो। न बोलने को पद्धति, न विधि- विहित शिष्टाचार। क्या वेद ने तुम्हे यही पढ़ाया है?

उत्तङ्क―आप बृद्ध है, पूजनीय है, क्या मेरे उपाध्याय को कटु वाक्य कह कर मेरी गुरुभक्ति की परीक्षा लेना चाहते हैं? या मुझे अपना शिष्टाचार सिखाना चाहते हैं?

जनमेजय―ब्रह्मचारी जी, क्षमा कीजिए! आप आर्य वेद के गुरुकुल से आए हैं? अहा! मैंने भी वही शिक्षा पाई है। आर्य सकुशल तो हैं?

उत्तङ्क―सम्राट्, सब कुशल है।

जनमेजय―गुरुकुल अच्छी तरह चल रहा है? कोई कमी