पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/३२

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पहला अङ्क―तीसरा दृश्य

तो नही है? अब तो गुरुवर बहुत वृद्ध हो गए होंगे! महावट वृक्ष वैसा ही हरा भरा है?

काश्यप―अभी तो कुछ ही वर्ष हुए, अग्निहोत्र के लिये उन्होने फिर पाणिग्रहण किया है।

जनमेजय―(ब्रह्मचारी से) क्या आर्य काश्यप सच कहते हैं?

उत्तङ्क―सच है राजाविराज। उन्हीं अपनी गुरुपत्नी के लिये मुझे महादेवी के कानों के मणिकुण्डल चाहिए। मुझ से यही गुरुदक्षिणा माँगी गई है।

जनमेजय―(कुछ देर चुप रहकर) मेरा तो कुण्डलों पर कोई अधिकार नहीं है, क्योकि मैं यह विजयोपहार महादेवी को अर्पण कर चुका हूँ।

काश्यप―तपोवन के गुरुकुल मे ये मणिकुण्डल पहन कर तुम्हारी गुरुपत्नी क्या करेंगी?

उत्तङ्क―और यह भी कोई शिष्टाचार है कि पुरोहित राजधर्म मे बाधा डालें―दानशील राजा के मन मे शङ्का उत्पन्न करें? महादेवी, मै आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मणिकुण्डल दान कर मुझे गुरु ऋण से मुक्त कीजिए।

वपुष्टमा―(कुण्डल उतार कर देती हुई) लीजिए ब्रह्मचारी जी। किन्तु इन्हे बड़ी सावधानी से ले जाइएगा।

उत्तङ्क―अचल सौभाग्य हो! राज्यश्री अविचल रहे!

जनमेजय―ये तक्षक के अमूल्य मणिकुण्डल हैं। वह इनकी ताक मे है। इन्हे सुरक्षित रखिएगा।