पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/३४

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पहला अङ्क—तीसरा दृश्य

यह मुझसे सहन न हो सका; इसीलिए मैं उनका राज्य छोड़कर चली आई।

वपुष्टमा―छीः! आर्य ललना होकर नाग जाति के पुरुष से विवाह किया! तभी तो यह लान्छना भोगनी पड़ती है।

सरमा―सम्राज्ञी! मैं तो एक मनुष्य जाति देखती हूँ―न दस्यु और न आर्य! न्याय की सर्वत्र पूजा चाहती हूँ―चाहे वह राजमन्दिर में हो, या दरिद्रकुटीर में। सम्राट् , न्याय कीजिए।

जनमेजय―दस्यु महिला के लिये कोई आर्य न्यायाधिकरण में नहीं बुलाया जायगा। तुम ने व्यर्थ इतना प्रयास किया।

सरमा―सम्राट्, मनुष्यता की मर्यादा भी क्यों सब के लिये भिन्न भिन्न है? क्या आर्यों के लिये अपराध भी धर्म हो जायगा?

जनमेजय―चुप रहो! पतिता स्त्रियो को श्रेष्ठ और पवित्र आयों पर अपराध लगाने का कोई अधिकार नहीं है।

सरमा―किन्तु पतिता का अपराध करने का आर्यों को अधिकार है? राजाधिराज, अधिकार का मद न पान कीजिए! न्याय कीजिए।

जनमेजय―असभ्यों मे मनुष्यता कहाँ। उनके साथ तो वैसा ही व्यवहार होना चाहिए। जाओ सरमा! तुमको लज्जित होना चाहिये!

सरमा―इतनी घृणा! ऐश्वर्य का इतना घमण्ड! प्रभुत्व और अधिकार का इतना अपव्यय! मनुष्यता इसे नही सहन करेगी। सम्राट्! सावधान!