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पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/३३

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जनमेजय का नाग-यज्ञ

उत्तङ्क―जो आज्ञा।

[ जाता है ]
 

काश्यप―अरे ऐसे अमूल्य रत्न भी इस तरह अज्ञात ब्रह्म- चारी को दान करने चाहिए? राजकोष में फिर क्या रह जायगा!

जनमेजय―किन्तु वह ब्रह्मचारी बड़ा सरल दिखाई देता था।

काश्यप―ऐसे बहुतेरे ठग आते हैं।

वपुष्टमा―आर्य, ऐसा न कहिए।

[ सरमा का प्रवेश ]

सरमा―दुहाई है! दुहाई है! न्याय कीजिए; सम्राट्, दुहाई है!

जनमेजय―क्या है? किस बात का न्याय चाहती हो?

सरमा―मेरे पुत्र को आपके भाइयो ने अकारण ,पीटा है। वह कुतूहल से यज्ञशाला मे चला गया था। वे लोग कहते है कि उसने घी का पात्र जूठा कर दिया।

काश्यप―अवश्य ही वह चोरी मे घी खाने घुसा होगा।

वपुष्टमा―आर्यपुत्र! न्याय कीजिए! नारी का अश्रुजल अपनी एक एक बँद मे बहिया लिए रहता है।

जनमेजय―तुम्हारा नाम क्या है? तुम क्यो यहाँ आई हो?

सरमा―मै यादवी हूँ। मैंने अपनी इच्छा से नाग परिणय किया था, पर उनको कुटिलता न सह सकी। कारण यह कि वे दिन रात आर्यों से अपना प्रतिशोध लेने की चिन्ता में रहते थे।