तक्षक―किन्तु हम असभ्य जंगली लोग धर्म को पवित्र, अपनी मानवो प्रवृत्ति से परे, एक उदार वस्तु मानते हैं। अपनी आवश्यकता को, अपनी लालसामयो दुर्बलता को उसमें नही मिलाते। उसे बालक की निर्मल हँसी के समान अछूती रहने देते हैं। पाप को पाप ही कहते हैं, उस पर धर्म का मिथ्या आवरण नहीं चढ़ाते।
काश्यप―बस करो। नागराज, अभी तुमको यह भी नहीं मालूम कि पाप और पुण्य किसे कहते हैं। इन सूक्ष्म तत्वो को समझना तुम्हारी मोटी बुद्धि और सामर्थ्य के बाहर है। जो तस्करता करना चाहते हो, वह करो। आर्यों को यह कला नही सिखलाई गई है।
[ तक्षक छुरी निकालता है। काश्यप चिल्लाता है―‘हैं हैं, ब्रह्म-हत्या न करो।’ तक्षक उसे ढकेल कर उत्तङ्क का उप्णीष लेना चाहता है। उत्तङ्क जाग उठता हैं। तक्षक छुरा मारना चाहता है। सरमा दौडती हुई आती है और तक्षक का हाथ पकड लेती है। तक्षक उत्तङ्क को छोड़ कर उठ खडा होता है। ]
सरमा―नृशंस तक्षक!
तक्षक―तुझे इस विश्वासघात का प्रतिफल मिलेगा। परि- णाम भोगने के लिये प्रस्तुत हो जा। आज यह छुरी तेरा ही रक्त पान करेगी!
उत्तङ्क―पामर! तुझे लज्जा नहीं आती? सोए हुए व्यक्ति को मार डालना चाहता था; अब नारी की हत्या करना चाहता है!
तक्षक―अरे, तुझमे भी नागराज तक्षक को ललकारने का