सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६
जनमेजय का नाग-यज्ञ

साहस है! देखूँँ तो, अपने आपको या पापिनी सरमा को कैसे बचाता है!

[ छुरी उठाता है ]
 

उत्तङ्क―यदि मैं ब्राह्मण हूँगा, यदि मेरा ब्रह्मचर्य और स्वाध्याय सत्य होगा, तो तेरा कुत्सित हाथ चल ही न सकेगा। हत्याकारी दस्यु को यह अधिकार नहीं कि वह सत्यशील ब्रह्म तेज पर हाथ चला सके! पाखण्डी, तेरा पतन समीप है।

[ तक्षक छुरा चलाना चाहता है। वासुकि आकर हाथ पकड़ लेता है। ]

वासुकि―नागराज, क्षमा करो। यह मेरी स्त्री है।

तक्षक―वासुकि, तुम विद्रोह करनेवाली को दण्ड से बचाते हो!

वासुकि―फिर भी यह मेरो स्त्री है। नागराज! सरमा और उत्तङ्क मुक्त है। वे जहाँ चाहे, जा सकते हैं।

सरमा―यह आर्य संसर्ग का ही प्रताप है। नागराज, आप मेरे पति हैं; किन्तु आप का मार्ग भिन्न है और मेरा भिन्न। फिर भी मेरा अनुरोध है कि जब अवसर मिले, इसी तरह मनुष्यता को व्यवहार में लाइएगा। अपने आपको सर्प की सन्तान मानकर कुटिलता और क्रूरता की ही उपासना मत कीजियेगा!

वासुकि―क्या पति होने के कारण तुम पर मेरा कुछ भी अधिकार नही? अब मैं तुम्हे न जाने दूँँगा।

सरमा―आप को और सब अधिकार है, पर मेरी सहज स्वतन्त्रता का अपहरण करने का नही।