पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/५६

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दूसरा अङ्क―पहला दृश्य

तुम्हारा आतिथ्य नहीं ग्रहण कर सकता, क्योकि मुझे एक पुरो- हित ढूँँढना है। मैं पौरव जनमेजय हूँ।

मणिमाला―(सम्श्रम से) स्वागत! माननीय अतिथि, आपको इस गुरुकुल का आतिथ्य अवश्य ग्रहण करना चाहिए। नहीं तो कुलपति सुनकर हम लोगों पर रुष्ट होगे।

जनमेजय―उदारशोले, धन्यवाद! इस समय मुझे आवश्यक कार्य है। फिर कभी आकर उनके दर्शन करूँँगा।

मणिमाला―मैं समझ गई। आप मुझे शत्रु कन्या समझते हैं, इसीलिये―

जनमेजय―नहीं भद्रे, तुम्हारे इस सरल मुख पर तो शत्रुता का कोई चिह्न ही नहीं है। ऐसा पवित्र सौन्दर्य पूर्ण मुख मण्डल तो मैंने कही नहीं देखा।

मणिमाला―(लज्जित होकर) आप आर्य जाति के सन्नाट् हैं न!

जनमेजय―किन्तु मै तो तुम सी नाग कुमारी की प्रजा होना भी अच्छा समझता हूँ।

[ जाता है ]
 

मणिमाला―(उधर देखती हुई) ऐसी उदारता व्यञ्जक मूर्ति, ऐसा तेजोमय मुख मण्डल! यह तो शत्रुता करने की वस्तु नहीं है। (कुछ सोचकर) मैं ही भ्रम मे हूँ। मैं जिसका सुन्दर व्यवहार देखती हूँ, उसी के साथ मेरा स्नेह हो जाता है। नही, नही, यह मेरी विश्व मैत्री का, उस सरमा यादवी की शिक्षा का फल है। किन्तु यहाँ तो अन्तःकरण में एक तरह को गुदगुदी होने लग गई!