पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४८
जनमेजय का नाग-यज्ञ

आस्तीक―बहन, माणवक लौट आया है। यह उसीका सा स्वर है। मैं जाऊँ, उससे मिल आऊँ। तुम तो अभी ठहरोगो न?

मणिमाला―हाँ भाई, मैंने इस झरने का बहना अभी जी भर नहीं देखा। तुम चलो; मैं भी थोड़ा ठहर कर आती हूँ।

[ आस्तीक का प्रस्थान ]
 

जनमेजय―( प्रकट होकर ) अहा! कैसा रमणीक स्थान है! ( मानों अभी देख पाया है ) अरे! इस निर्जन वन में देवबाला सी आप कौन हैं?

मणिमाला―मै नागकन्या हूँ। क्या आप आतिथ्य चाहते हैं?

जनमेजय―शुभे! क्या यहाँ कोई ऐसा स्थान है?

मणिमाला―आर्य! समीप ही मे महर्षि च्यवन का आश्रम है। मेरा भाई उन्हीं के गुरुकुल मे पढ़ता है। मैं भी थोड़े दिनों के लिये यही आ गई हूँ। ऋषि-पत्नी मुझे भो शिक्षा देती है।

जनमेजय―भद्रे, यदि तुम्हारा भी परिचय पा जाऊँ, तो मै विचार करूँ कि आतिथ्य ग्रहण कर सकता हूँ या नहीं।

मणिमाला―मै नागराज तक्षक की कन्या हूँ, और जरत्कारु ऋषि का पुत्र आस्तीक मेरा भाई है।

जनमेजय―यह कैसा रहस्य! क्या कहा, जरत्कारु?

मणिमाला―हाँ, यायावर जरत्कारु ने मेरी बूआ नाग कुमारी मनसा से ब्याह किया था।

जनमेजय―नाग कुमारी, मैं क्षमा चाहता हूँ। इस समय मैं