पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५४
जनमेजय का नाग-यज्ञ

पीछे न पड़ो। देवि, इसी मे तुम्हारा कल्याण होगा। एक मै ही इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हूँ। चारो ओर मारा मारा फिर रहा हूँ।

दामिनी―क्या तुमको भी किसी से प्रतिशोध लेना है? वाह! तब तो हम और तुम एक पथ के पथिक है।

माणवक―क्षमा करो, मैं उस पथ मे बहुत ठोकरें खा चुका हूँ। अब उस पर चलने का साहस नहीं, बल नहीं। तुम जाओ; तुम्हारा मार्ग और है, मेरा और।

दामिनी―तब मुझको ही वहाँ पहुँचा दो।

माणवक―कहाँ?

दामिनी―(कुछ सोचकर) तक्षक के पास।

माणवक―( चौंककर ) वहाँ! मै नही जा सकता। और तुम दुर्बल रमणी हो। लौट जाओ; दुस्साहस न करो।

दामिनी―नहीं, मुझे वहाँ जाना आवश्यक है। मेरे शत्रु का एक वही शत्रु है। अच्छा, और कहाँ जाऊँ, तुम्हीं बता दो।

माणवक―मैं–नही–( देखकर ) लो, वे स्वयं इधर आ रहे हैं! मै जाता हूँ।

[ माणवक का प्रस्थान। तक्षक का प्रवेश। ]
 

तक्षक―सुन्दरी, इस बिजन पथ मे, इस बीहड स्थान में तुम क्यों आई हो?

दामिनी―क्या आप हा तक्षक हैं?

तक्षक―क्यों, कुछ काम है?

दामिनी―हाँ, पर पहले अपना नाम बतलाइए। तक्षक―हाँ, मेरा ही नाम तक्षक है।