पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५३
दूसरा अङ्क―दूसरा दृश्य

माणवक―यह न पूछो। मै संसार को भूली हुई वस्तु हूँ। न मैं किसी को जानना चाहता हूँ और न कोई मुझे पहचानने की चेष्टा करता है। तुमने कभी शरद् के विस्तृत व्योम मण्डल मे रूई के पहल के समान एक छोटा सा मेघ-खण्ड देखा है? उसको देखते देखते विलीन होते या कहीं चले जाते भी तुमने देखा होगा। विशाल कानन की एक वल्लरी की नन्ही सी पत्ती के छोर पर विदा होने वाली श्यामा रजनी के शोकपूर्ण अश्रु विन्दु के समान लटकते हुए एक हिमकण को कभी देखा है? और उसे लुप्त होते हुए भी देखा होगा। उसी मेघ खण्ड या हिमकरण की तरह मेरी भी विलक्षण स्थिति है। मैं कैसे कह सकता हूँ कि कहाँ रहता हूँ और कब तक रह सकूँगा?

दामिनी―आश्चर्य! तुम तो एक पहेली हो।

माणवक―मैं ही नहीं, यह समस्त विश्व भी एक पहेली है। हर्ष, द्वेष, प्रतिहिंसा, प्रतिशोध―

दामिनी―क्या कहा?

माणवक―प्रतिशोध! क्या ये सब पहेली नहीं है?

दामिनी―हाँ हाँ, स्मरण आया―प्रतिशोध! मुझे प्रतिशोध लेना है!

माणवक―किससे? क्या उसे लेकर तुम रख सकोगी? वह जहाँ रहेगा, जलाया करेगा, डङ्क मारा करेगा और तड़पाया करेगा। उसे तुम सँभाल नहीं सकोगी। और जिसे तुम धारण नहीं कर सकती, उसे तुम लेकर क्या करोगी? छोड़ो, उसके