परिषद् भी अन्यमनस्क है, और कर्मचारी भी इस आतङ्क से कुछ डरे हुए हैं। वे बेमन का काम कर रहे हैं।
उत्तङ्क―लकड़िहारे से तो आप सुन ही चुके कि इसी काश्यप ने तक्षक से मिलकर राज-निधन कराया है। और यही लोलुप काश्यप फिर ऐसी कुमन्त्रणाओ मे लिप्त हो, तो क्या आश्चर्य!
जनमेजय―होगा; तो फिर मैं क्या करूँ?
उत्तङ्क―सम्राट्र को किंकर्तव्य विमूढ़ होना शोभा नहीं देता। मनोबल सङ्कलित कीजिए; दृढ़ प्रतिज्ञ हृदय के सामने से सब बिघ्न स्वय दूर हो जायँगे। सबल हाथो में दण्ड ग्रहण कीजिए। कोई दुराचारी क्यो न हो, दण्ड से मुक्त न रहे। सम्राट्! अपने पिता का प्रतिशोध लोजिए, जिसमे इस ब्रह्मचारी की प्रतिज्ञा भी पूरी हो। इन दुर्वृत्त नागो का दमन कीजिए।
जनमेजय―किन्तु मनुष्य प्रकृति का अनुचर और नियति का दास है। क्या वह कर्म करने मे स्वतन्त्र है?
उत्तङ्क―अपने कलङ्क के लिये रोने से क्या वह छूट जायगा? उसके बदले मे सुकर्म करने होगे। सम्राट्! मनुष्य जब तक यह रहस्य नहीं जानता, तभी तक वह नियति का दास बना रहता है। यदि ब्रह्म हत्या पाप है, तो अश्वमेघ उसका प्रायश्चित्त भी तो है। अपने तीनो वीर सहोदरो को तीन दिशाओ में विजयो- पहार ले आने के लिये भेजिए; और आप स्वयं इन नागो का दमन करने के लिये तक्षशिला की आर प्रस्थान कीजिए। अश्वमेघ के व्रती होइए। सम्राट्! जब तक मेरी क्रोधाग्नि में दुर्वृत्त नाग