पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/८०

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दूसरा अङ्क―सातवाँ दृश्य

चण्ड भार्गव―हूँ! इतनी ऊर्जस्विता!

नाग―क्यो नहीं! अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के विचार से मै मरने के लिये रण भूमि मे आया था। यदि यहाँ आकर बन्दी हो गया, तो क्या मैं लज्जित होऊँ? हाँ दुःख इस बात का है कि तुम्हे मार कर नहीं मर सका।

चण्ड भार्गव―तुम जानते हो कि इसका क्या परिणाम होगा?

नाग―वही जो औरो का हुआ है! होगा रणचण्डी का विकट ताण्डव, आर्यों का स्वाहा गान, और हमारे जीवन की आहुति! नाग मरना जानते हैं। अभी वे हीन पौरुष नहीं हुए हैं। जिस दिन वे मरने से डरने लगेंगे, उसो दिन उनका नाश होगा। जो जाति मरना जानती रहेगी, उसीको इस पृथ्वी पर जीने का अधिकार रहेगा।

चण्ड भार्गव―मैं अपना कर्तव्य कर चुका। इनकी आहुति दो।

[ सैनिक लोग नागों को एक ओर ढकेल कर फूस से घेरकर आग लगा देते हैं। आर्य सैनिक 'स्वाहा' चिल्लाते हैं। पहाडी में से एक गुफा का मुँँह खुल जाता है। मनसा और तक्षक दिखाई देते हैं। चण्ड भार्गव―अरे यही तक्षक है! पकड़ो, पकड़ो।

[चण्ड भार्गव आगे बढ़ता है। बाल खोले और हाथ में नङ्गी तलवार लिए हुए मनसा आकर बीच में खड़ी हो जाती है। तक्षक दूसरी ओर निकल जाता है। सब आर्यसैनिक स्तब्ध रह जाते हैं। ]

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