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पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/८६

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तीसरा अङ्क―पहला दृश्य

व्यास―वत्स, यह कुतूहल अच्छा नहीं। जो हो रहा है, उसे होने दो। अन्तरात्मा को प्रकृतिस्थ करने का उद्योग करो― मन को शान्त रखो।

जनमेजय―पूज्यपाद, मुझे भविष्य जानने को बड़ी अभि- लाषा है।

व्यास―(ध्यानम्थ होकर) जनमेजय, तुम्हारा भविष्य भी बहुत रहस्यपूर्ण है। तुम्हारा जीवन श्रीकृष्ण के किए हुए एक आरम्भ की इति करने के लिये है। (हँसकर ऊपर देखते हुए) गोपाल, इसे तुम इतने दिनो के लिये स्थगित कर गए थे!

जनमेजय―भगवन्, पहेली न बनाइए।

व्यास―नियति, केवल नियति! जनमेजय, और कुछ नहीं। ब्राह्मणो की उत्तेजना से तुमने अश्वमेध करने का जो दृढ़ सङ्कल्प किया है, उसमे कुछ विघ्न होगा; और धर्म के नाम पर आज तक जो बहुत सी हिसा होती आई हैं, वे बहुत दिनों तक के लिये रुक जाने को है।

जनमेजय―यदि कोई ऐसी बात हो, तो प्रभु, मैं यज्ञ न करूँ!

व्यास―वत्स, तुमको यज्ञ करना ही पड़ेगा। तुम्हारे सिर पर ब्रह्म हत्या और इतनी नाग हत्या का अपराध है। इसी यज्ञ की आशा से ब्राह्मण समाज ने अभी तक तुम्हे पतित नही ठहराया है। धर्म का शासन तुम्हे मानना ही पड़ेगा। तुम्हारी आत्मा इतनी स्वच्छन्द नहीं कि तुम इस प्रचलित परम्परा का उल्लंघन कर सको। अभो तुम्हारे स्वच्छन्द होने में विलम्ब है। तुम्हे तो यह क्रिया पूर्ण