अंगरेजी समाजका शूद्रवर्ण कितना गिरा हुआ है और क्या यम यातना भोग रहा है, उसका चित्र देखकर कहना पड़ता है कि पुराणों में जिन नरकोंका वर्णन है वे इन अंगरेज दुखियों के घरोंसे कहीं अच्छे होंगे। वर्तमान युरोपीय महाभारत भी अभिमान और लोभका परिणाम है।
युद्धके बाद भारतका कर्तव्य होगा कि इन भलेमानस देशों को समझावै कि भाई, सोना चान्दी, हीरा जवाहिर, नील, कपड़े चमड़े तथा राज्य और व्यापारकी दूसरी बातें ऐसी नहीं हैं जिनके लिये नरमेध यज्ञ किया जाय, जिनके लिये रणगंगा बहाई जाय। धन और पौरुषकी रक्षा करो, लेकिन इतना संहार करके नहीं। जहां वर्तमान संसारके समृद्धिशाली देश दिन रात रुपये रुपयेका स्वप्न देख रहे हैं वहां भारत सर्वथा संतुष्ट होकर बैठा है। खानेकी फिक्र नहीं, कपड़ेकी परवाह नहीं। नतीजा यह हुआ कि आज खाने पहननेको भी न रह गया। 'ब्रह्मसत्य जगन्मिथ्या' का अनर्थ हमारे हृदयमें इतना अधिक समाया है कि निकालनेसे भी नहीं निकलता है। कृष्ण भगवानने स्वयं गीतामें कर्मयोगका महत्व बतलाया, स्वयं काम करते रहे, लेकिन भगवानकी शिक्षाका ठीक महत्व न समझकर हम स्वार्थको बिल्कुल भूल गये। प्रातःकाल जब हम अभी सोते रहते हैं संसारकी अनित्यताका गीत गाते हुए भिखारी हमको जगाता है, दिन भर परमार्थके पचड़ेमें पड़े रह कर "मोहिंसम कौन कुटिल खलकामी" गाते हुए हम रात्रिमें शयन करते हैं।