पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१०८

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छोटा जादूगर कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूंज रहा पा था। मैं खड़ा था। उस छोटे फुहारे के पास, एक लड़का चुपचाप शराब पीनेवालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्ते थे। उसके मुँह पर गम्भीर विषाद के साथ धैर्य की रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी सम्पूर्णता थी। मैंने पूछा -'क्यों जी, तुमने इसमें क्या देखा?' 'मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नम्बर छेदते हैं। मझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल में ही दिखा सकता हूँ।'–उसने बड़ी प्रगल्भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रुकावट न थी। मैंने पूछा-'और उस परदे में क्या है? वहाँ तुम गये थे।' 'नहीं, वहाँ मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।' मैंने कहा-'तो चलो, मैं वहीं पर तुमको लिवा चलूँ।' मैंने मन-ही-मन कहा-'भाई! आज के तुम्ही मित्र रहे।' उसने कहा-'वहाँ जाकर क्या कीजियेगा? चलिये, निशाना लगाया जाए।' मैंने उससे सहमत होकर कहा-'तो फिर चलो, पहिले शरबत पी लिया जाए।' उसने स्वीकार-सूचक सिर हिला दिया। मनुष्यों की भीड़ से जाड़े की सन्ध्या भी वहाँ गर्म हो रही थी। हम दोनों शरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा-'तुम्हारे और कौन हैं?' 'माँ और बाबूजी।' 'उन्होंने तुमको यहाँ आने के लिए मना नहीं किया?' 'बाबूजी जेल में हैं।'