पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

________________

कुंज तो चला गया, बुढ़िया ने कहा- 'राधे बेटा, आज तक तूने कौन-से अच्छे काम किये हैं, जिनके बल पर मन्दिर में जाने का साहस करता है? ना बेटा, यह काम कभी मत करना। अरे ऐसा भी कोई करता है!' 'तूने भात बनाया है आज?' 'नहीं बेटा! आज तीन दिन से पैसे नहीं मिले। चावल है नहीं।' 'इन मन्दिरवालों ने अपनी जूठन भी तुझे दी?' 'मैं क्यों लेती, उन्होंने दी भी नहीं।' 'तब भी तू कहती है कि मन्दिर में हम लोग न जाएँ! जाएँगे; सब अछूत जाएँगे।' 'न बेटा! किसी ने तुमको बहका दिया है। भगवान के पवित्र मन्दिर में हम लोग आज तक कभी नहीं गये। वहाँ जाने के लिए तपस्या करनी चाहिए।' 'हम लोग तो जाएँगे।' 'ना, ऐसा कभी न होगा।' 'होगा, फिर होगा। जाता हूँ ताड़ीखाने, वहीं पर सबकी राय से कल क्या होगा; यह देखना।'-राधे ऐंठता हुआ चला गया। बुढ़िया एकटक मन्दिर की ओर विचारने लगी -'भगवान, क्या होनेवाला है!' दूसरे दिन मन्दिर के द्वार पर भारी जमघट था। आस्तिक भक्तों का झुण्ड अपवित्रता से भगवान की रक्षा करने के लिए दृढ़ होकर खड़ा था। उधर सैकड़ों अछूतों के साथ राधे मन्दिर में प्रवेश करने के लिए तत्पर था। लट्ठ चले, सिर फूटे। राधे आगे बढ़ ही रहा था कि कुंजबिहारी ने बगल से घूमकर राधे के सिर पर करारी चोट दी। वह लहू से लथपथ वहीं लोटने लगा। प्रवेशार्थी भागे। उनका सरदार गिर गया था। पुलिस भी पहुँच गयी थी। राधे के अन्तरंग मित्र गिनती में 10-12 थे। वे ही रह गये। क्षणभर के लिए वहाँ शिथिलता छा गयी थी। सहसा बुढ़िया भीड़ चीरकर वहीं पहुँच गई। उसने राधे को रक्त में सना हुआ देखा। उसकी आँखें लहू से भर गयीं। उसने कहा -'राधे की लोथ मन्दिर में जाएगी। वह अपने निर्बल हाथों से राधे को उठाने लगी। उसके साथी बढ़े। मन्दिर का दल भी हुँकारने लगा; किन्तु बुढ़िया की आँखों के सामने ठहरने का किसी को साहस न रहा। वह आगे बढ़ी; पर सिंहद्वार की दहलीज पर जाकर सहसा रुक गई। उसकी आँखों की पुतली में जो मूर्तिभंजक छाया-चित्र था, वही गलकर बहने लगा। राधे का शव दहलीज के समीप रख दिया। बुढ़िया ने दहलीज पर सिर झुकाया, पर वह सिर उठा न सकी। मन्दिर में घुसनेवाले अछूतों के आगे बुढ़िया विराम-चिह्न-सी पड़ी थी।