पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/१४८

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थोड़ी-सी चोट मेरे भी आ गयी।' ___ 'वजीरी!'-कहकर बूढ़ा एक बार चिन्ता में पड़ गया। तब तक नन्दराम ने उसके सामने रुपये की थैली उलट दी। बूढ़ा अपने घोड़े का दाम सहेजने लगा। प्रेमा ने कहा-'बाबा! तुमने कुछ और भी कहा था। वह तो नहीं आया!' बूढ़ा त्यौरी बदलकर नन्दराम को देखने लगा। नन्दराम ने कहा- 'मुझे घर में अस्तबल के लिए एक दालान बनाना है। इसलिए बालियाँ नहीं ला सका।' 'नहीं नन्दराम! तुझको पेशावर फिर जाना होगा। प्रेमा के लिए बालियाँ बनवा ला! तू अपनी बात रखता है।' 'अच्छा चाचा! अबकी बार जाऊंगा, तो ले ही आऊँगा।' हिजरती सलीम आश्चर्य से उनकी बातें सुन रहा था। सलीम जैसे पागल होने लगा था। मनुष्यता का एक पक्ष वह भी है, जहाँ वर्ण, धर्म और देश को भूलकर मनुष्य मनुष्य के लिए प्यार करता है। उसके भीतर की कोमल भावना, शायरों की प्रेम-कल्पना, चुटकी लेने लगी। वह प्रेमा को 'काफिर' कहता था। आज उसने चपाती खाते हुए मन-ही-मन कहा-'बुरेकाफ़िर!' सलीम घुमक्कड़ी-जीवन की लालसाओं से सन्तप्त, व्यक्तिगत आवश्यकताओं से असन्तुष्ट युक्तप्रान्त का मुसलमान था। कुछ-न-कुछ करते रहने का उसका स्वभाव था। जब वह चारों ओर से असफल हो रहा था, तभी तुर्की की सहानुभूति में हिजरत का आन्दोलन खड़ा हुआ था। सलीम भी उसी में जुट पड़ा। मुसलमानी देशों का आतिथ्य कड़वा होने का अनुभव उसे अफगानिस्तान में हुआ। वह भटकता हुआ नन्दराम के घर पहुंचा था। मुसलिम उत्कर्ष का उबाल जब ठण्डा हो चला, तब उसके मन में एक स्वार्थपूर्ण कोमल कल्पना का उदय हुआ। वह सूफी कवियों-सा सौन्दयोपासक बन गया। नन्दराम के घर का काम करता हुआ वह जीवन बिताने लगा। उसमें भी 'बुते-काफिर' को उसने अपनी संसार-यात्रा का चरम लक्ष्य बना लिया। प्रेमा उससे साधारणत: हँसती-बोलती और काम के लिए कहती। सलीम उसके लिए खिलौना था। दो मन दो विरुद्ध दिशाओं में चलकर भी नियति से बाध्य थे, एकत्र रहने के लिए। __ अमीर ने एक दिन नन्दराम से कहा- 'उस पाजी सलीम को अपने यहाँ से भगा दो, क्योंकि उसके ऊपर सन्देह करने का पूरा कारण है।' नन्दराम ने हँसकर कहा-'भाई अमीर! वह परदेश में बिना सहारे आया है। उसके ऊपर सबको दया करनी चाहिए।' अमीर के निष्कपट हृदय में यह बात न अँची। वह रूठ गया। तब भी नन्दराम ने सलीम को अपने यहाँ रहने दिया। सलीम अब कभी-कभी दूर-दूर घूमने के लिए भी चला जाता। उसके हृदय में सौन्दर्य