निकालकर एक नया बाग लगानेका हुक्म दिया जिसका जहांआरा नाम रखा।
बादशाह विशेषकर शहरआरा बागमें कभी सखाओं और कभी बेगमोंके साथ रहा करता था। रातोंको काबुलके मौलवियों और विद्यार्थियोंसे कहता था कि बगरा(१) पकानेको सभा सजाकर आजाशक(२) नाच नांचें। फिर उन लोगोंको सिरोपाव देकर एक हजार रुपये नकद भी आपसमें बांट लेनेको दिये।
बादशाहने हुक्म देदिया था कि जबतक मैं काबुलमें रइं प्रति गुरुवार को एक हजार रुपये गरीबों और कङ्गालोंको बांटे जावें।
फिर बादशाहने चिनारके वृक्षोंके बीचमें गज भर लम्बा और पौन गज चौड़ा खेत पाषाण खड़ा कराकर उसपर एक तरफ अपना नाम और अपनी पीढ़ियां अमीर तैमूर तक खुदवादीं और दूसरी तरफ यह लिखाया कि हमने काबुलके सब जकात और टैक्स माफ कर दिये। हमारे बेटों पोतोंमेंसे जो कोई उन करोंको लेगा वह ईश्वरक कोपमें पड़ेगा। बादशाहके काबुलमें आनेकी तारीख जो १३ सफर गुरुवार थी वही इस पत्थर पर खोदी गई।
यह टैक्स प्राचीन समयसे लिये जाते थे। बादशाहके आने पर माफ होजानसे प्रजा बड़ी प्रसन्न हुई।
गजनीन और उसके आसपासके जो मलिक और खान आये थे उनको सिरोपाव मिले और जो उनके काम थे कर दिये गये।
काबुलके दक्षिणको एक पहाड़में एक पत्थरका चबूतरा तख्तशाहके नामसे प्रसिद्ध था। उस पर बैठकर बाबर बादशाह मद्य पिया करता और वहीं एक कुण्ड खुदा हुआ था जिसमें दो मन मदिरा हिन्दुस्थानके तौलको आती थी। चबूतरेकी दीवार पर
(१) आईन अकबरींमें लिखा है कि बगरा एक प्रकारका पुलाव होता था जो मांस बेसन घी खांड और सिरकेसे बनाया जाता था।
(२) इस नाचका अर्थ वर्णन सहित किसी कोषमें न मिला।