६ जीकाद (माघ सुदी ८) को परवेजके दक्षिण पहुंचनेसे पहले खानखानां और दूसरे अमीरोंकी यह अर्जी दक्षिणसें पहुंची कि दक्षिणी लोग फसाद किया चाहते हैं। बादशाहने परवेज और दूसरी सनाओंके भेजे जाने पर भी अधिक सहायताकी आवश्यकता समझकर स्वयं दक्षिणकी तरफ जानेका विचार किया। आसिफ खांकी अर्जी आई कि बादशाहका इधर पधारना बहुत आवश्यक है। बीजापुरके आदिलखांकी भी अर्जी पहुंची कि राजसभाके विश्वासपात्रमेंसे कोई आवे तो उससे अपने मनोरथ कहूं और वह लौटकर बादशाहसे कहे तो दासोंका कल्याण हो।
बादशाहने मन्त्रियों और शुभचिन्तकोंसे सलाह पूछी और प्रत्येककी सम्मति ली। खानजहांने कहा कि जब इतने बड़े बड़े सुभट दक्षिण जीतनेको जाचुके हैं तो हजरतका पधारना आवश्यक नहीं है। यदि आज्ञा हो तो मैं भी शाहजादेकी सेवामें जाऊं और इस कामको पूरा करूं।
बादशाहको उसका बियोग स्वीकार न था और युद्ध भी बड़ा था इस लिये शुभचिन्तकोंकी सम्मति स्वीकार करके उसको फरमाया कि फतहपुर होतेही लौट आना एक वर्षसे अधिक वहां न रहना। (१७ फागुन सुदी ५) शुक्रवारको उसके जानेका मुहर्त्त था। उस दिन बादशाहने उसको जरीका खासा खिलअत खासा घोड़ा जड़ाऊ जीनका, जड़ाऊ परतला, खासा हाथी, तूमान और तोग देकर बिदा किया। फिदाईखांको घोड़ा खिलअत और खर्च देवार खानजहांके साथ भेजा और उससे कह दिया कि जो किसी को आदिलखांके पास उसकी प्रार्थनाके अनुसार भेजनेकी आवश्य- कता हो तो इसको भेजें। लंकू पण्डितको भी जो अकबरके समय में आदिलखांकी भेट लेकर आया था घोड़ा सिरोपाव और रुपये देकर खानजहांके साथ कर दिया।
अबदुल्लहखांके पास जो अमीर रानाकी लड़ाईके वास्ते थे उनमें से राजा बरसिंह देव शुजाअतखां और राजा विक्रमाजीत आदिको