पृष्ठ:जहाँगीरनामा.djvu/५७

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जहांगीर बादशाह सं० १६६२ ।

उस परमात्मा तक पहुंचने में असमर्थ है और बिना किसी आधारके उसको पहचानने का मार्ग नहीं पासकते इस लिये हमने इन अव तारोंको अपने वहां तक पहुंचनेका साधन बना रखा है।"

"मैंने कहा कि यह मूर्तियां कबतक तुम्हारे वास्ते परमात्मा तक पहुंचनेका हार होसकती हैं।"

बादशाहके घरका हाल।

इसके आगे बादशाहने अपने बाप माइयों और बहनोंका कुछ घरू वृत्तान्त लिखा है जो विलक्षण और सुहावना होनेसे यहां भी लिखा जाता है।

बादशाह लिखता है--"मेरे पिता प्रत्येक धर्म्म और पन्थके विद्वानों और विशेषकर हिन्दुस्थानके पण्डितोंका बहुधा सत्सङ्ग करते थे। वह पढ़े नहीं थे तो भी पण्डितों और विद्वानोंके पास बैठनेमे उनकी बातों में अविहत्ता नहीं दरसने पाती थी। गद्य और पद्यके गूढार्थों को ऐसे पहुंच जाते थे कि उससे बढ़कर पहुंचना सम्भव न था।"

"कद कुछ लम्बा था, वर्ण गेहुंवा, आंख भौं काली, छवि अच्छी, सिंहका सा शरीर, छाती चौड़ी, हाथ और बाई दीर्घ, नाकके बायें नथने पर सुन्दर तिल, आधे चनेके बराबर, जो सामुद्रिक जानने वालोंके मनमें धन और ऐश्वर्य्यकी वृद्धिका हेतु है, बोली गम्भीर बातें सलोनी, खरूप और छवि इस लोकके लोगोंसे भिन्न थी, देव-मूर्ति थे।"

बहन भाई।

"मेरे जन्मसे तीन महीने पीछे मेरी बहन शाहजादा खाजम एक सहेलीसे पैदा हुई। पिताने उसे अपनी माताको सौंप दिया। उसके पीछे एक लड़का दूसरी सहेलीसे फतहपुरके पहाड़ोंमें हुआ। उसका नाम तो शाह मुराद था परन्तु पिता पहाड़ी कहते थे। जब उसको दक्षिण जीतनेके वास्ते भेजा तो वह कुसङ्गतमें पड़कर इतनी अधिक शराब पीने लगा कि ३० वर्षको अवस्थामें जालनापुर