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जहांगीर बादशाह सं० १६६३।

मिष करके ३५० सवारों के साथ आगरेसे निकल गया। अमीरुल- उमराने जब यह समाचार सुना तो जनानी ड्योढ़ी पर जाकर नाजिरसे अर्ज कराई कि हजरत बाहर पधारें कुछ जरूरी अर्ज करना है।

बादशाहको इस बातका खयाल भी न था। वह समझा कि गुजरात या दक्षिणसे कोई खबर आई है। बाहर आने पर यह वृत्तान्त सुना तो कहा क्या करना चाहिये ? मैं आप जाऊ या खुर्रमको भेजूं ?

अमीरूल उमराने प्रार्थना की कि यदि आज्ञा हो तो मैं जाऊं। बादशाहने कहा जाओ। तब उसने फिर पूछा कि जो समझानेसे जावे और सामना करे तो क्या किया जावे? बादशाहने कहा जो किसी तरह भी सीधे रस्ते पर न आवे तो फिर जो तुझसे हो सके उसमें कमी मत करना क्योंकि राजासे किसीका सम्बन्ध नहीं होता है।

अमीरुलउमराको बिदा करनेके पीछे बादशाहने सोचा कि इसके हमारे पास अधिक रहनेसे खुसरो नाराज है ऐसा न हो कि इसको नष्ट करदे। इसलिये मुअज्जुलमुल्कको खुसरोके लौटा लाने को भेजा। शेख फरीदबखशीको भी उन सब ओहदेदारों और मन- सबदारों के साथ जो पहरे चौकी पर थे इसी काम पर नियत किया और एहतिमामखां कोटवालको पता लगाने जानेका हुक्म दिया।

फिर समाचार लगे कि खुसरो पञ्जाबकी ओर जारहा है। उसका मामा मानसिंह बंगालेमें था इसलिये बहुधा अमीरोंका यह विचार हुआ कि वह रास्ता काटकर उधर चला जावेगा। इस पर हर तरफ आदमी भेजे गये। उसका पंजाबको जानाही निश्चय हुआ।

दिन निकलतेही बादशाह भी खुसरोके पीछे चला। ३ कोस पर अकबर बादशाहका "रौजा" (१) आया। वहां पहुंचकर जहांगीर


(१) समाधिस्थान।