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जाति-भेद का उच्छेद


तो बुरी हैं, परन्तु उन के बजाय चार वर्ण ज़रूर होने चाहिए । जन्म-मूलक जात-पाँत को तो आज पागल भी अच्छा नहीं कह सकता, इसलिए आर्यसमाजी लोग अपने चातुर्वर्ण्य-विभाग का विरोध कम करने और उसे अधिक आकर्षक बनाने के लिए कहते हैं कि वर्ण जन्म से नहीं, गुण से हैं । परन्तु इस आदर्श का भी समर्थन नहीं हो सकता। पहली बात तो यह है कि यदि आर्य समाजियों के चातुर्वर्ण्य में व्यक्ति को उस के गुणों के अनुसार ही हिन्दू-समाज में स्थान मिलेगा, तो समझ में नहीं आता कि वे लोगों पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लेबिल लागाने का क्यों हठ करते हैं। ब्राह्मण का लेबिल लगाये बिना भी एक विद्वान् सम्मान पाता रहेगा । क्षत्रिय का नाम दिये बिना भी सिपाही का आदर होगा । आर्य समाजियों को सोचना चाहिए कि यदि यूरोपीय समाज अपने योद्धाओं और विद्वानों पर स्थायी लेबिल लगाये बिना भी उन का आदर-सत्कार कर सकता है, तो उन को ही लेबिल लगाना क्यों आवश्यक जान पड़ता है । ब्राह्मण और क्षत्रिय के इन लेबिलों को कायम रखने के विरुद्ध एक और भी आपत्ति है।

‌यह अनुभव-सिद्ध बात है कि जो भावनायें और संस्कार किसी नाम के साथ एक बार जोड़ दिये जाते हैं, वे हमारा एक अंशु ही बन जाते हैं। वे कड़े हो कर ऐसी मनोवृत्ति का रूप धारण कर लेते हैं, जिस से मुक्त होना सुशिक्षित व्यक्ति के लिए भी कठिन हो जाता है। प्राचीन कुसंस्कारों की मानसिक दासता से छुटकारा पाना उतना सुगम नहीं, जितना कि प्रायः समझा जाता है। आचरण में थोड़ा-बहुत परिवर्तन अवश्य हो सकता है; परन्तु यदि नाम वही रहें, तो उन नामों के साथ लगी हुई भावनायें न‌