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जाति-भेद क्यों नहीं मिटता


भाव और वह समाज भी आ जाता है जिस से उसका संबन्ध होता है । टर्की को सुलतान यदि चाहता भी तो मुस्लिम जगत के धर्म को न बदल सकता । परन्तु यदि वह बदल सकता, तो यह बहुत ही असंभव है कि इस्लाम का मुखिया मुहम्मद के धर्म को उलट देने की इच्छा करता । सुलतान की शक्ति के प्रयोग पर भीतरी रोक कम से कम उतनी ही मज़बूत है जितनी कि बाहरी रोक | लोग कई बार निरर्थक प्रश्न करते हैं कि पोप अमुक या अमुक सुधार क्यों नहीं कर देता ? इस का ठीक उत्तर यह है कि क्रान्तिकारी मनुष्य उस प्रकार का नहीं होता जो पोप बनता है, और जो मनुष्य पोप बनता है उसे क्रान्तिकारी बनने की कोई इच्छा नहीं होती ।”

मैं समझता हूँ यह शब्द भारत के ब्राह्मणों पर भी समान रूप से चरितार्थ होते हैं । हम उतनी ही सचाई के साथ कह सकते हैं कि जिस प्रकार जो मनुष्य पोप बनता है उसे क्रान्तिकारी बनने की कोई इच्छा नहीं होती उसी प्रकार जो मनुष्य ब्राह्मण के घर जन्म लेता है उसे क्रान्तिकारी बनने की उस से भी कम इच्छा होती है। वास्तव में सामाजिक सुधार की बातों में ब्राह्मण से क्रान्तिकारी होने की आशा करना, लेज़ली स्टीफ़न के शब्दों में, उतना ही व्यर्थ है, जितना कि ब्रिटिश पार्लियामेण्ट से सभी नीली आंखों वाले बच्चों को मार डालने का कानून पास कर देने की अशा करना ।

आप में से कुछ लोग कहेंगे कि जाति-भेद तोड़ने के आन्दोलन में ब्राह्मया आगे आयँ या न आयँ, इस में मुज़ायक़ा ही क्या है। मेरी समझ में ऐसी धारणा रखना उस महत्व से आँखें मूंद लेना है जो किसी समाज में बद्धिजीवी श्रेणी को प्राप्त होता है। आप चाहे इस मत को भानें या न मानें कि महापुरुष ही इति-