बुरा प्रभाव होना अवश्यम्भावी है। ऐसी अवस्था में क्या ब्राह्मणों
से यह आशा करना युक्तियुक्त है कि वे कभी ऐसे आन्दोलन
के अगुआ बनना स्वीकार करेंगे जिसका अन्तिम परिणाम
ब्राह्मण जाति की शक्ति और विशेषाधिकार को नष्ट करना है ?
क्या यह आशा करना युक्तियुक्त है कि लौकिक ब्राह्मण याजक
ब्राह्मणों के विरुद्ध जारी किए हुए आन्दोलन में भाग लेंगे ? मेरी
राय में तो याजक ब्राह्मणों और लोकिक ब्राह्मणों में भेद करना
व्यर्थ है । दोनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। वे एक ही शरीर की
दो भुजाएँ हैं। उनमें से एक का दूसरे की रक्षा के लिए लड़ना
अनिवार्य है।
इस संबन्ध में मुझे प्रोफेसर डाईसे ( prof Dieey) के उनकी पुस्तक "English Constitution" में लिखे सारगर्भित वचन याद हो आते हैं। पार्लियामेण्ट के व्यवस्थापक प्राधान्य पर वास्तविक रुकावटों का वर्णन करते हुए डाईसे कहते हैं-"किसी राजाधिराज द्वारा और विशेषत: पार्लियामेण्ट द्वारा प्रभुत्व के वास्तविक प्रयोग को दो रुकावटें काबू में रखती हैं । इनमें से एक बाहरी रुकावट होती है और दूसरी भीतरी । राजाधिराज या सर्वप्रधान शासक की वास्तविक शक्ति पर बाहरी रोक इस संभावना या निश्चय में है कि उसकी प्रजा या उनकी बहुसंख्या उसके राजनियमों का उल्लङ्घन या प्रतिरोध करेगी।...... सर्व प्रधान शक्ति के प्रयोग पर भीतरी रोक सर्वप्रधान शक्ति के अपने स्वरूप से उत्पन्न होती है। यहाँ तक कि एक स्वेच्छाचारी प्रजा- पीड़क शासक भी अपने शील के अनुसार ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है। उसके शील को वे अवस्थायें ढालती हैं जिन में वह रहता है । इन अवस्थाओं के अन्तर्गत उस काल के नैतिक