88 / जाति क्यों नहीं जाती ? पूरी-पूरी बराबरी के लिए है। कम्युनिस्ट इस बात को अच्छी तरह से समझते थे कि एक उपनिवेश में औद्योगिक प्रगति की धीमी गति के चलते किसान जनता का सर्वहाराकरण उतना नहीं हेता जितनी कि उसकी तबाही होती है। शहरी फैक्टरियों तक पहुंच जानेवालों की अपनी ग्रामीण छाप आसानी से छूटती नहीं है । शुरू-शुरू में जमीन से उनके संबंध बने रहते हैं और हर साल दो महीने के लिए वे अपने गांव चले जाया करते हैं। इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्र से नये-नये लोग आकर जितनी तेजी से उनकी कतारों में जुड़ रहे थे, उससे मजबूत वर्गीय विचारधारा के विकास में लगातार विकृति आती रही थी । यह बात साफ है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पूर्व-पूंजीवादी भूमि- संबंधों पर प्रहार करना जरूरी था । 1928 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की छठी कांग्रेस द्वारा स्वीकृत 'कोलोनियल थीसिस' में कहा गया था: साम्राज्यवाद के हस्तक्षेप के कारण... मुद्राचलन और व्यापारिक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में गांवों को खींचने की प्रक्रिया के साथ ही किसानों की तबाही की प्रक्रिया शुरू हो गयी है... दूसरी ओर, उपनिवेशों में ऐतिहासिक दृष्टि से देर से हो रहे औद्योगिक विकास ने सर्वहाराकरण की प्रक्रिया के लिए गंभीर बाधाएं पैदा कर दी हैं... पूंजीवाद ने उपनिवेश के गांवों को अपने कर और व्यापार के ढांचे का हिस्सा तो बना लिया है और इससे पूर्व पूंजीवादी संबंधों में बदलाव भी आया है (मसलन ग्रामीण सामूहिकता टूटी है); लेकिन, इतने भर से किसानों को पूर्व पूंजीवादी संबंधों और शोषण के बोझ से मुक्ति नहीं मिली है। सिर्फ इतना हुआ है कि इस सबको, मुद्रा की भाषा दे दी गयी है... किसानों को अपनी दयनीय हालत से उबरने में यही 'सहायता' मिली है कि (भारत और चीन के कुछ हिस्सों में) कर्जों के आधार पर पीढ़ी दर पीढ़ी की गुलामी की हालत और पैदा हो गयी है । 1968 में राष्ट्रीय अखंडता के प्रश्न पर सी. पी. आइ. (एम) ने एक ज्ञापन दिया था। उस ज्ञापन में कहा गया था : हाल ही में आंध्र के कांचीकचारिया गांव में दिन दहाड़े एक हरिजन खेत मजदूर को जलाये जाने की बर्बर घटना पर संसद और सारे देश ने अपने गुस्से का इजहार किया। अनुसूचित जातियों, जनजातियों और दूसरे पिछड़े तबकों पर ढाये जा रहे जुल्मों की अनगिनत घटनाएं अखबारों में छपती रही हैं। ऐसा नहीं कि इस तरह की घटनाएं किसी खास इलाके या खास राज्य में ही