पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२)

गया है ‘और पद्मावत मिस्ल कवल के थी, अपने मकान में गई”. बस दो नमूने और देखिए—

(२) फेरत नैन चेरि सौ -छूटी। भइ कूटन कुटनी तस कूटी'।

इसका ठीक अर्थ यह है कि पद्मावती के दृष्टि फेरते ही सौ दासियाँ छूटीं और उस कुटनी को खूब मारा। पर ‘चेरि’ को ‘चीर' सभझकर इसका यह अर्थ किया गया है—

‘अगर बह आंखें फेर के देखे तो तेरा लह्ँगा खुल पड़े और जैसी कुटनी है, वैसा ही तुझको कूटे'।

(३) ‘गढ़ सौंपा बादल कहँ, गए टिकठि बसि देव'।

ठीक अर्थ-चित्तौरगढ़ बादल को सौंपा गौर टिकठी या अरथी पर बसकर राजा (परलोक) गए।

कानपुर की प्रति में इसका अर्थ इस प्रकार किया गया है—'किलअ बादल को सौंपा गया और बासदेव सिधारे"। बस इन्हीं नमूनों से अर्थ का अर्थ करनेवाले का अंदाज कर लीजिए।

अब रहा चौथा, सुधाकर जी गौर डाक्टर ग्रिर्सन साहब वाला भढ़कीला संस्करण। इसमें सुधाकर जी की बड़ी लंबी-चौड़ी टीकाटिप्पणी लगी हुई है; पर दुर्भाग्य से या सौभाग्य से ‘पदमावतके' तृतीयांश तक ही यह संस्करण पहुंचा। इसकी तड़क भडक का तो कहना ही क्या है! शब्दार्थ, टीका और इधर उधर के किस्सों और कहानियों से इसका डीलडौल बहुत बड़ा हो गया है। पर टिप्पणियाँ अधिकतर अशुद्ध ऑोर टीका स्थान स्थान पर भ्रमपूर्ण है। सुधाकर जी में एक गुण यह सुना जाता है कि यदि कोई उनके पास कोई कविता अर्थ पूछने के लिये ले जाता तो वह विमुख नहीं लौटता था वे खींच तानकर कुछ न कुछ अर्थ लगा ही देते थे। बस इसी गुण से इस टीका में भी काम लिया गया है। शव्दार्थ में कहीं यह नहीं स्वीकार किया गया है कि इस शब्द से टीकाकार परिचित नहीं। सब शब्दों का। कुछ न कुछ अर्थ मौजूद है, चाहे वह अर्थ ठीक हो,या न हो। शब्दार्थ के कुछ नमूने देखिए-

१) ताईं = तिन्हें (कीन्ह खंभ दुई जग के ताईं)। (२) आछहि = अच्छा (बिरिछ जो आछहि चंदन पासा) । (३) अँबरउर = आम्रराज, अच्छे जाति का आम या अमरावती। (४) सारउ = सारा, दूर्वा, दूव (सारिउ सुआ जो रहचह करहीं)। (५) खड़वानी = गडुवा, झारी। (६) अहूठ = अनुत्थ, न उठने योग्य / (७) कनक कचोरी = कनिक या आटे की कचौड़ी। (८) करसी = कर्षित की, खिचवाई (सिर करवत, तन करसी बहुत सीझ तेहि आस)।

कहीं कहीं अर्थ ठीक बैठाने के लिये पाठ भी विकृत कर दिया गया है, जैसे, 'करहु चिरहटा पंखिन्ह लावा' का 'कतहु छरहटा पेखन्ह लावा' कर दिया गया है। और 'छरहटा' का अर्थ किया गया है ‘क्षार लगानेवाले’ नकल करनेवाले'। जहाँ 'गथ' शब्द आया है (जिसे हिंदी कविता का साधारण ज्ञान रखनेवाले भी जानते हैं)