सूर्य छिपता अवश्य है, पर उसके छिपने का जो हेतु कहा गया है वह कवि-कल्पित है और उस हेतु का आधार 'लज्जित होना' सिद्ध नहीं है। इसी प्रकार की हेतुत्प्रेक्षा दाँतों पर है—
दारिउँ सरि जो न कै सका, फाटेउ हिया दरक्कि।
रूपवर्णन के अंतर्गत फलोत्प्रेक्षा भी कई जगह दिखाई देती है, जैसे नासिका के वर्णन में यह पद्य—
पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा। मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा॥
माँग के संबंध में ये उक्तियाँ—
करवत तपा लेहि होड़ चूरू। मकु सो रुहिर लेइ सेंदूरू॥
कनक दुवादस वानि होइ, चह सोहाग ओहि माँग॥
व्यतिरेक के दो उदाहरण नीचे दिए जाते हैं—
का सरवरि तेहि देउँ मयंकू। चाँद कलंको, वह निकलंकू॥
औ चौदहिं पुनि राहु गरासा| वह बिनु राहु सदा परगासा॥
सुवा सो नाक कठोर पँवारी। वह कोमल तिल पुहुप सँवारी॥
दूसरे उदाहरण में 'तिलपुहुप' पद आक्षेप द्वारा दूसरे उपमान के रूप में नहीं लाया गया है बल्कि तृतीयांत (तिल पुष्प से) है। इससे व्यतिरेक हो अलंकार कहा जायगा।
'रूपकातिशयोक्ति' (भेदप्यभेदः) भी जायसी की अत्यंत मनोहर है । इसके द्वारा कवि ऐसी मनोहर और रमणीय प्राकृतिक वस्तुएँ सामने रखता है कि हृदय सौंदर्य की भावना में मग्न हो जाता है। हेतुत्प्रेक्षा के समान यह भी कवि को बहुत प्रिय है। स्थान स्थान पर इसका प्रयोग मिलता है। रतनारे नेत्रों के बीच घूमती हुई पुतलियों की शोभा की ओर कवि इस प्रकार इशारा करता है—
राते कँवल करहिं अलि भँवा। घूमहिं माति चहहिं अपसवाँ॥
इसी कमल और भ्रमरवाले रूपक को अतिशयोक्ति में जायसी और जगह भी बड़ी सुंदरता से लाए हैं। प्रेमजोगी रत्नसेन के सिंहलगढ़ में पकड़े जाने पर पद्मावती विरह में अचेत पड़ी है, आँखें नहीं खोलती है। इतने में कोई सखी आकर कहती है—
कँवल कली तू, पदमिनि! गह निसि भयेउ बिहानु।
अबहुँ न संपुट खोलसि, जब रे उवा जग भानु॥
यह सुनते ही पद्मावती आँखें खोलती है जिसकी सूचना रूपकातिशयोक्ति के बल से कवि इन शब्दों में देता है—
भानु नावँ सुनि कँवल बिगासा। फिर कै भँवर लीन्ह मधु बासा॥
यहाँ भी कवि ने केवल कमलदल पर बैठे भौंरे का उल्लेख करके आँख खुलने (डेले के बोच काली पुतली दिखाई देने) की सूचना दी है। इसी अलंकार के कुछ और नमूने देखिए—