पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१०६

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(क) साम भुअंगिनि रोमावली। नाभिहि निकसि कँवल कहँ चली॥
आइ दुवौ नारँग बिच भई। देखि मयूर ठमकि रहि गई॥
(ख) पन्नग पंकज मुख गहे, खंजन तहाँ बईठ।
छत्र, सिंहासन, राज, धन, ता कहँ होइ जो दीठ॥

कहीं कहीं तो जायसी ने अलंकारों की बड़ी जटिल और गूढ़ योजना की है। देवपाल की दूती पद्मिनी को बहका रही है कि जब तक यौवन है तब तक भोगविलास कर ले-

जोवन जल दिन दिन जस घटा। भँवर छपान, हंस परगटा॥

जैसे जैसे यौवनरूपी जल दिन दिन घटता जाता है वैसे ही वैसे (शरीर रूपी नदी या सरोवर में) पानी की बाढ़ के भँवर छिपते जाते हैं और हंस (मानसरोवर से आकर) दिखाई पड़ने लगते हैं। यह तो हुआ सांग रूपक। पर एक बात है। जल का अरोप जिसपर किया गया है उस यौवन का उल्लेख तो साथ ही है। पर दूसरी पंक्ति में हमें रूपकातिशयोक्ति माननी पड़ती हैं। दोनों पंक्तियों का एक साथ विचार करने पर नदी या सरोवर के ही अंग भँवर (पानी के भँवर) और हंस ठहरते हैं जो शरत् के दृश्य को पूरा करते हैं। अतः दूसरी पंक्ति में अतिशयोक्ति सिद्ध हो जाने पर ही 'सांग रूपक' होता है। पर अतिशयोक्ति की सिद्धि के लिये श्लेष द्वारा ‘भँवर’ शब्द का दूसरा अर्थ, काला भौंरा, लेना पड़ता है तब जाकर उपमेय अर्थात् काले केश की उपलब्धि होती है। इस प्रकार रूपक को प्रधान या अंगी मानने से श्लेष और अतिशयोक्ति उसके अंग हो जाते हैं और अलंकारों का यह मेल 'अगांगि भाव संकर' ठहरता है।

प्रसंगवश ‘सांग रूपक' के गुणदोष का भी थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। यह तो मानना ही पड़ेगा कि एक वस्तु में दूसरी वस्तु का आरोप सादृश्य और सामंजस्य के आधार पर ही होता है। अधिकतर देखा जाता है कि 'निरंग रूपक' में तो सादृश्य और साधर्म्य का ध्यान रहता है पर सांग और परंपरित में इनका पूरा निर्वाह नहीं होता और जल्दी हो भी नहीं सकता। दो में से एक का भी पूरा निर्वाह हो जाय तो बड़ी बात है, दोनों का एक साथ निर्वाह तो बहुत कम देखा जाता है। सादृश्य से हमारा अभिप्राय बिंबप्रतिबिंब रूप और साधर्म्य से वस्तुप्रतिवस्तु धर्म है। साहित्यदर्पणकार का यह उदाहरण लेकर विचार कीजिए—

‘रावरणरूप अवर्षण से क्लांत देवतारूप शस्य को इस प्रकार वाणीरूप अमृतजल से सींच वह कृष्णरूप मेघ अंतहित हो गया!'

इस उदाहरण में रावण और अवर्षण में रूपसादृश्य नहीं है, केवल साधर्म्य है। इसी प्रकार देवता और शस्य में तथा वाणी और जल में कोई रूपसादृश्य नहीं है, साधर्म्य मात्र है—विष्णु का स्वरूप भी नील जलद का सा और धर्म भी उसी के समान लोकानंदप्रदान है। पर सांग रूपक में कहीं कहीं तो केवल अप्रस्तुत (उपमान) दृश्य को किसी प्रकार बढ़ाकर पूरा करने का ही ध्यान कवियों को रहता है। वे यह नहीं देखने जाते कि एक एक अंग या ब्योरे में किसी प्रकार का सादृश्य या साधर्म्य है अथवा नहीं। विनयपत्रिका के 'सेइय सहित सनेह देह भरि कामधेनु कलि कासी' वाले पद में रूपक के अंगों की योजना अधिकतर इसी प्रकार की है।