रतन छुवा जिन्ह हाथन्ह सेंती। और न छुवौं सो हाथ सँकेती॥
दमक रंग भए हाथ मँजीठी। मुकुता लेउँ पै घुघुँची दीठी॥
अर्थात् जिन हाथों से मैंने उस दिव्य रत्न (राजा रत्नसेन) का स्पर्श किया अब उनसे और वस्तु क्या छूऊँ? उस दिव्य रत्न या माणिक्य के प्रभाव से मेरे हाथ इतने लाल हैं कि मोती भी अपने हाथ में लेकर देखती हूँ तो वह गुंजा (हाथ की ललाई से गुंजा का लाल रंग और देखने से पुतली की छाया पड़ने के कारण गुंजा का सा काला दाग) हो जाता है, अर्थात् उसका कुछ भी मूल्य नहीं दिखाई पड़ता।
अब इसके अलंकारों पर विचार कीजिए। सबसे पहले तो 'रतन' पद में हमें श्लेष मिलता है। फिर दूसरे चरण में काकु वक्रोक्ति। तीसरे चौथे चरण में जटिलता है। 'उस रत्न के स्पर्श से मेरे हाथ लाल हुए' इसका विचार यदि हम गुण की दृष्टि से करते हैं तो 'तद्गुण' अलंकार ठहरता है। फिर जब हम यह विचार करते हैं कि पद्मिनी के हाथ तो स्वभावतः लाल हैं (उनमें लाली का आरोप नहीं है) तब हमें रत्नस्पर्श रूप हेतु का आरोप करके हेतूत्प्रेक्षा कहनी पड़ती है। अतः यहाँ इन दोनों अलंकारों का 'संदेह संकर' हुआ। चौथे चरण में 'तद्गुण' अलंकार स्पष्ट है। पर यह अलंकारनिर्णय भी हमें व्यंग्य अर्थ तक नहीं पहुँचाता। अतः हम लक्षणा से तो ‘मुक्ता’ का अर्थ लेते हैं 'बहुमूल्य वस्तु' और घुंघुची का अर्थ लेते हैं ‘तुच्छ वस्तु'। इस प्रकार हम इस व्यंग्य अर्थ पर पहुँचते हैं कि रत्नसेन के सामने मुझे संसार की उत्तम से उत्तम वस्तु तुच्छातितुच्छ दिखाई पड़ती है।
इन उदाहरणों से पाठक समझ सकते हैं कि जायसी ने अलंकारों से अर्थ पर अर्थ भरने का कैसा कड़ा काम किया है। इसी 'मुक्ता' को लेकर कवियों ने भी तद्गुण अलंकार बाँधा है, पर वे रूपाधिक्य की व्यंजना के आगे नहीं बढ़ सके हैं, जैसे कि इस प्रसिद्ध दोहे में—
अधर जोति विद्रुम लसत, पिय मुकुता कर दीन्ह।
देखत ही गुंजा भयो, पुनि हँसि मुकुता कीन्ह॥
सिंदूर से लाल माँग के इस वर्णन में जायसी ने तद्गुण और हेतुत्प्रेक्षा का मेल किया है—
भोर साँझ रवि होड़ जो राता। ओहि देखि राता भा गाता॥
‘निदर्शना' और 'यमक' का यह उदाहरण है—
धरती बान बेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहिं सब साखी॥
इसी प्रकार दाँतों के इस वर्णन में भी 'तृतीय निदर्शना' है—'हारी जोति सो तेहि परिछाही'।
देखिए, ‘गोरा’ नाम का कैसा अर्थगर्भित प्रयोग इस सुंदर दोहे में जायसी ने किया है—
रतनसेन जो बाँधा, मसि गोरा के गात।
जौ लगि रुधिर न धोवौं, तौ लगि होइ न रात॥
'गोरा' नाम भी है और शुभ्रश्वेत अर्थ का द्योतक भी है। जो वस्तु श्वेत और निर्मल है उसपर मसि या स्याही का धब्बा पड़ना कितना बुरा है! यह धब्बा