मिटेगा कैसे? जब (अपने या शत्रु के) रुधिर से धोया जायगा। इस दोहे में यदि ‘गात' के स्थान पर 'वदन' या 'मुख' शब्द आया होता तो इसका मोल अधिक बढ़ जाता क्योंकि उस अवस्था में 'सुर्खरू' होने का मुहाविरा भी सटीक बैठ जाता है।
एक स्थान पर तो जायसी ने ऐसी ढकी हुई या गूढ़ रमरणीय रूपयोजना (अप्रस्तुत) रखी है जिसका आभास मिलने पर कवि के कौशल पर चित्त चमत्कृत हो जाता है। जब पद्मिनी हँसती है तब उसके लाल ओठों और सफेद दाँतों की द्युति का प्रसार किस प्रकार होता है, देखिए—
हीरा लेइ सो विद्रुम धारा। बिहँसत जगत हाथ उजियारा।
हीरे की ज्योति लिए हुए जब वह विद्रुम वर्ग की (अरुण) द्युतिधारा फैलती है तब सारा जगत् प्रकाशित हो जाता है। इस उक्ति में उषा की मधुर श्वेत और ज्योति के उदय का दृश्य किस प्रकार छिपा है! जब पद्मिनी हँसती है तब संसार उसी प्रकार खिल उठता है, जगमगा उठता है, जिस प्रकार उषा का मधुर प्रकाश फैलने पर। उक्ति के भीतर अप्रस्तुत रूप में इस प्रकार का दबा हुआ रूपविधान (सप्रेस्ड इमैजरी) आधुनिक काव्याभिव्यंजन की दृष्टि से भी परम रमणीय माना जाता है।
‘संदेहालंकार' का उदाहरण जायसी में नहीं मिलता। एक स्थान पर (नखशिख में) रोमावली के वर्णन में यह खंडित रूप में मिलता है—
मनहुँ चढ़ी भौरन्ह कै पाँती। चंदन खाँभ बास कै माती॥
की कालिंदी बिरह सताई। चलि पयाग अरइल बिच आई॥
संदेह में दो कोटियाँ होनी चाहिएँ और दोनों कोटियों में समान रूप से ज्ञान होना चाहिए। यहाँ एक ही कोटि है, चौपाई के पिछले दो चरणों में। चौपाई के प्रथम दो चरणों में तो उत्प्रेक्षा है । अतः संदेह अलंकार सिद्ध नहीं है, खंडित है।
कुछ और अलंकारों के उदाहरण लीजिए—
(१) कहाँ छपाए चाँद हमारा। जेहि बिनु रैनि जगत अँधियारा॥
(विनोक्ति)
(२) बसा लंक बरनै जग झीनी। तेहि ते अधिक लंक वह खीनी॥
परिहस पियर भए तेहि बसा। लये डंक लोगन्ह कहँ डसा॥
(प्रत्यनीक)
सिंह न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह बनबासु।
तेहि रिस मानुस रकत पिय, खाइ मारि कै माँसु॥
(प्रत्यनीक)
(३) निति गढ़ बाँचि चलै ससि सूरू। नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू॥
(संबंधातिशयोक्ति)
(४) मिलिहिं बिछुरे साजन अंकम भेंटि गहंत।
तपनि मृगसिरा जे सहहिं ते अद्रा फ्लुहंत॥
(अर्थांतरन्यास)
(५) का भा जोग कथनि के कथे। निकसै घिउ न बिना दधि मथे॥
(दृष्टांत)