अलक फाँस गिउ मेलि असूझा। अधर अधर सौं चाहहिं जूझा॥
कुंभस्थल कुच दोउ मैमंता। पेलौं सौंह, सँभारहु कंता॥
इन दोनों उदाहरणों में प्रस्तुत रस के विरुद्ध सामग्री का आरोप है। यद्यपि साहित्य के आचार्यों ने साम्य से कहे हुए विरोधी रस या भाव को (विभाव आदि को भी) दोषाधायक नहीं माना है, पर इस प्रकार के आरोपों से रस की प्रतीति में व्याघात अवश्य पड़ता है, वाग्वैदग्ध्य द्वारा मनोरंजन चाहे कुछ हो जाय। काव्य में बिंबिस्थापना (इमैजरी) प्रधान वस्तु है। बाल्मीकि, कालिदास आदि प्राचीन कवियों में यह पूर्णता को प्राप्त है। अँगरेजी कवि शेली इसके लिये प्रसिद्ध है। भाषा के दो पक्ष होते हैं—एक सांकेतिक (सिंबोलिक) और दूसरा बिंबाधायक (प्रेजेन्टेटिव)। एक में तो नियत संकेत द्वारा अर्थबोध मात्र हो जाता है, दूसरे में वस्तु का बिंब या चित्र अंतःकरण में उपस्थित होता है। वर्णनों में सच्चे कवि द्वितीय पक्ष का आलंबन करते हैं। वे वर्णन इस ढंग पर करते हैं कि बिंबग्रहण हो अतः रसात्मक वर्णनों में यह आवश्यक है कि ऐसी वस्तुओं का बिंबग्रहण कराया जाय, ऐसी वस्तुएँ सामने लाई जायँ, जो प्रस्तुत रस के अनुकूल हों, उसकी प्रतीति में बाधक न हों। सादृश्य और साधर्म्य के आधार पर आरोप द्वारा भी जो वस्तुएँ लाई जायँ, वे भी ऐसी ही होनी चाहिएँ। वीररस की अनुभूति के समय कुच, तरिवन, सिंदूर आदि सामने लाना या शृंगाररस की अनुभूति के अवसर पर मस्त हाथी, भाले, बरछे, सामने रखना रसानुभूति में सहायक कदापि नहीं।
बात की काटछाँटवाले अलंकार—जैसे, परिसंख्या—यद्यपि जायसी में कम हैं पर कई प्रसंगों में जहाँ किसी पात्र का वाक्चातुर्य दिखाना कवि को इष्ट है वहाँ श्लेष और मुद्रा अलंकार का आश्रय बहुत लिया गया है—यहाँ तक कि जी ऊबने लगता है। रत्नसेन पद्मावती के प्रथम समागम के अवसर पर जब सखियाँ पद्मावती को छिपा देती हैं तब राजा के रसायनी प्रलाप में धातुओं आदि के बहुत से नाम निकलते हैं, जैसे—
सो व रूप जासौं दुख खोलौं। गएउ भरोस तहाँ का बोलौं॥
जहँ लोना बिरवा कै जाती। कहि कै सँदेस आन को पाती॥
जो एहि घरी मिलावैं मोहीं। सीस देउँ बलिहारी ओही॥
राजा कहता है 'वह रूप (पद्मावती) सामने नहीं है जिसके आगे मैं अपना दुख खोलूं।' 'जहाँ वह सलोनी लता (पद्मावती) है वहाँ सँदेसा कहकर उसका पत्र कौन लावे?' इत्यादि। इसमें श्लेष और मुद्रा दोनों अलंकार हैं। इसी प्रकार की एक उक्ति वियोगदशा में नागमती की है—
धौरी पडंक कह पिउ नाऊँ। जौं चित्त रोख न दूसर ठाऊँ॥
जाहि बया होइ पिउ कंठ लवा। करै मेराव सोइ गौरवा॥
अर्थात्—सफेद और पीली (पांडुवर्ण) पड़कर भी मैं उस प्रिय का नाम लेती हैं (क्योंकि) यदि मैं चित्त में रोष करूँ तो मेरे लिये और दूसरा ठिकाना नहीं