पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/११२

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है। जा और (सँदेसा कहकर) आ[१], जिसमें प्रिय कंठ से लगे। जो मिलाप करावे वही गौरवान्वित है। (चौपाई के रेखांकित शब्द चिड़ियों के नाम भी हैं।)

इसी प्रकार रत्नसेन के सिंहलद्वीप से चलने की तैयारी करने पर पद्मावती कहती है—

मोहि असि कहाँ सो मालति बेली। कदम सेवती चंप चमेली॥ कदम सेवती (१) चरणों की सेवा करती है, (२) कदंब और सेवती फूल)।

यहाँ तक अर्थालंकारों के नमूने हुए। शब्दालंकारों में जायसी ने वृत्यानुप्रास, यमक और श्लेष का प्रयोग किया है, पर संयम के साथ अनुप्रास आदि पर ही लक्ष्य रखकर खेलवाड़ इन्होंने कहीं नहीं किया है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं—

(१) रसनहि रस नहिं एकौ भावा। (यमक)
(२) गइ सो पूजि, मन पूजि न आसा। (यमक)
(३) भूमि जो भीजि भएउ सब गेरू। (अनुप्रास)
(४) पपिहा पीउ पुकारत पावा। (अनुप्रास)
(५) रंग रकत रह हिरदय राता। (अनुप्रास)
(६) भइ बगमेल सेन घनघोरा। औ गजपेल अकेल सो गोरा।

(अनुप्रास)

श्लेष के बहुत से उदाहरण पहले आ चुके हैं।

अलंकार हैं क्या? वर्णन करने की अनेक प्रकार की चमत्कारपूर्ण शैलियाँ, जिन्हें काव्यों से चुनकर प्राचीन आचार्यों ने नाम रखे और लक्षण बनाए। ये शैलियाँ न जाने कितनी हो सकती हैं अतः यह नहीं कहा जा सकता कि जितने अलंकारों के नाम ग्रंथों में मिलते हैं उतने ही अलंकार हो सकते हैं। बीच बीच में नए आचार्य नए अलंकार बढ़ाते आए हैं; जैसे, 'विकल्प' अलंकार को अलंकार-सर्वस्वकार राजानक रुय्यक ने ही निकाला था। इसलिये यह न समझना चाहिए कि किसी कवि की रचना में उतनी ही चमत्कारपूर्ण शैलियों का समावेश होगा जितनी नाम रखकर गिना दी गई हैं। बहुत से स्थलों पर कवि ऐसी शैली का अवलंबन कर जायगा जिसके प्रभाव या चमत्कार की ओर लोगों का ध्यान न गया होगा और जिसका कोई नाम न रखा गया होगा; यदि रखा भी गया होगा तो किसी दूसरे देश के रीतिग्रंथ में। उदाहरण के लिये यह पद्य लीजिए—

कँवलहि विरह विथा जस बाढ़ी। केसर बरन पीर हिय गाढ़ी॥

'केसर बरन पीर हिय गाढ़ी' इस पंक्ति का अर्थ अन्वयभेद से तीन ढंग से हो सकता है—(१) कमल केसरवर्ण (पीला) हो रहा है, हृदय में गाढ़ी पीर है। (२) गाढ़ी पीर से हृदय केसरवर्ण हो रहा है। (३) हृदय में केसर वर्ण


  1. बया (फारसी) आ।